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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ६७ रहने लगे । श्राचार्य श्री ने समडोली में चातुर्मास किया । आश्विन शुक्ला एकादशी वीर निर्वाण संवत् २४५० में आपने ऐलक दीक्षा ग्रहण की। आपका नाम चन्द्रसागर रखा गया । वास्तव में श्राप चन्द्र थे । श्रापका गौर वर्ण उन्नत भाल चन्द्र के समान था । आपके धवल यश की किरणें चन्द्रमा के समान समस्त संसार में फैल गई । वीर संवत २४५० में आचार्यश्री ने सम्मेदशिखरजी की यात्रा के लिए प्रस्थान किया । ऐलक चन्द्रसागरजी भी साथ में थे। संघ फाल्गुन में शिखरजी पहुंचा, तीर्थराज की वन्दना कर सबने अपने को कृतकृत्य समझा । तीर्थराज पर संघपति पूनमचन्द घासीलाल ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करवाई । लाखों नर नारी दर्शनार्थ आये । धर्म की अपूर्व प्रभावना हुई । वहां से विहार कर, कटनी, ललितपुर, जम्बूस्वामी सिद्धक्षेत्र मथुरा में चातुर्मास करके अनेक ग्रामों में धर्मामृत की वर्षा करते हुए सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पर पहुंचे । वहाँ पर आपने वीर संवत २४५६ मार्गशीर्ष शुक्ला १५ सोमवार मृग नक्षत्र मकर लग्न में दिन के १० बजे आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के चररणसान्निध्य में दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की। समस्त कृत्रिम वस्त्राभूषण त्याग कर आपने पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्तिरूप श्राभूषण तथा २८ मुलगुणरूप वस्त्रों से स्वयं को सुशोभित किया । दिगम्बर मुद्रा धारण करना सरल और मुलभ नहीं है, अत्यन्त कठिन है। धीर वीर महापुरुष हो इस मुद्रा को धारण कर सकते हैं । आपने इस निर्विकार मुद्रा को धारण कर अनेक नगरों व ग्रामों में भ्रमरण किया तथा अपने धर्मोपदेश से जन जन के हृदय पटल के मिथ्यान्धकार कोदूर किया । सुना जाता है कि आपकी वक्तृत्व शक्ति अदभुत थी । श्रापका तपोबल, आचारबल, श्रुतबल, वचनवल, प्रात्मिकबल और धैर्य प्रशंसनीय था । सिंहवृत्तिधारक : जिसप्रकार सिंह के समक्ष श्याल नहीं ठहर सकते उसीप्रकार आपके समक्ष वादीगरण भी नहीं ठहर सकते थे । श्याल अपनी मण्डली में ही उहु उहु कर शोर मचा सकते हैं परन्तु सिंह के सामने चुप रह जाते हैं, वैसे ही दिगम्बरत्व के विरोधी जिन शास्त्र के मर्म को नहीं जानने वाले ज्ञान दूर से ही आपका विरोध करते थे परन्तु सामने आने के बाद मूक के समान हो जाते थे । सुना है कि जिस समय आचार्यश्री का संघ दिल्ली में आया था। उस समय एक सरकारी आदेश द्वारा दिगम्बर साधुओं के नगर विहार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। जब यह वार्ता निर्भीक चन्द्र सिन्धु के कानों में पड़ी तो उन्होंने विचार किया अहो ! ऐसे तो मुनि मार्ग रुक ही जाएगा इसलिये उन्होंने श्राहार करने के लिये शुद्धि की, और वीतराग प्रभु के समक्ष कायोत्सर्ग कर हाथ में
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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