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________________ ८४ धर्म : जीवन जीने की कला खोलने में सहायक होगा। सत्य से, सम्बन्ध रखने वाली अनेक विभिन्नताएँ दूर करेगा। परन्तु जब स्वयं अनुभूतियों पर उतारने लगेंगे तो सच्चाई की सारी विभिन्नताएँ शनैः-शनैः दूर होंगी ही। सच्चाइयों में भेद नजर नहीं आयेगा, बशर्ते कि अनुभूति का प्रयोग पूर्वाग्रह-विहीन हो और सत्य शोधन के लिए ही हो। सत्य न अपना होता है न पराया। न पुराना होता है न नया। न बूढ़ा होता है न जवान । न बर्मी होता है न भारतीय । न हिन्दू होता है न मुसलमान । सत्य सत्य है-सदा एकसा, सर्वत्र एकसा। परन्तु किसी मान्यता को जब कोरी कपोल कल्पनाओं पर आश्रित कर सत्य मानने लगते हैं तो विभिन्नता आती ही है । निष्पक्ष अनुभूतिजन्य सत्य में भेद नहीं हुआ करता। शब्दसत्य और अनुमान सत्य की सीमाओं को लांघकर जब हम प्रत्यक्ष सत्य को महत्त्व देने लगते हैं तो मिथ्या कल्पनाओं की जड़ें हिलने लगती हैं। शुद्ध धर्म प्रतिष्ठापित होने लगता है। जो अनुभूतियों पर उतरे वही सत्य, ऐसा मानकर चलना धर्म के रास्ते पर चलना है। सत्य के, ज्ञान के, मुक्ति के रास्ते पर चलना है। ऐसे माहौल में अंधविश्वास टिक नहीं सकता। अनृत, झूठ पनप नहीं सकता । सत्य धर्म अनुसंधान का विषय है, अंधानुकरण का नहीं। परन्तु जहाँ सम्प्रदाय पनपता है वहाँ साम्प्रदायिक नेता सत्य को समीप नहीं आने देते। सच्चाई को तर्क की कसौटी पर भी कसने नहीं देते । अनुभूतियों पर उतारना तो बहुत दूर की बात है। कहते हैं धर्म में अक्ल को दखल नहीं। कैसा धर्म है यह जिसमें अक्ल को स्थान न हो ? बिना अक्ल, बिना बोधि का धर्म, धर्म कैसे हुआ ? हां, यह ठीक है कि सम्प्रदाय में अक्ल की दखल नहीं होती, क्योंकि अक्ल आते ही सम्प्रदाय के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। वहाँ तो अंधविश्वास ही पनपता है, अनृत के धरातल पर अधर्म ही पनपता है। धर्म नहीं पनप सकता। जब आदमी अपने दिमाग को कैद कर लेता है तो सच्चाई का अनुसंधान स्वतः बन्द हो जाता है। धर्म के पांव कट जाते हैं, उसकी आँखें फूट जाती हैं और वह लंगड़ा और अंधा होकर सम्प्रदाय बन जाता है। आदमी ने तब-तब सत्य की शोध करनी छोड़ी जब-जबकि "बाबा वचन प्रमाण" वाला गुरुडम उसके सामने दीवार बन कर खड़ा हो गया । किसी भी संकीर्ण बुद्धि वाले साम्प्रदायिक नेता को यही भय बना रहता है कि मेरे बाड़े की एक भी भेड़ यह बाड़ा तुड़ाकर किसी दूसरे में न जा
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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