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________________ ओर जिज्ञासा निर्माण हुई और लोग उसका स्वरूप जानने को उत्सुक पाये गये। लोगों का बड़ा आग्रह रहा कि गोयन्काजी इस विषय का साहित्य निर्माण कर जनता को विपश्यना ध्यान पद्धति की जानकारी करावें। किन्तु गोयन्काजी को यह भय रहा कि लोग इसे बुद्धि से समझ भी जायँ तो भी ध्यान शिविर में बैठकर ठीक अभ्यास को बिना समझे गल्ती कर सकते हैं। और जैसा भारत में ही नहीं सारे संसार में होता है उस तरह पूरा समझे बिना, योग्य मार्गदर्शक की पात्रता के बिना उपदेश देकर लाभ के बदले कुछ लोग हानि ही अधिक करते हैं । थोड़ा बहुत कुछ जाना न जाना दूसरों को सिखाने की कई लोग कोशिश करते हैं। जिससे कई बार साधकों को बड़ी हानि उठानी पड़ती है। इस साधना की विशेषता यह रही है कि वह जैसे प्राचीनकाल से चली आई है, उसमें कहीं भी कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ। जैसी थी वैसी ही चली आ रही है। उसमें कहीं भी कोई अपनी ओर से परिवर्तन न करे और जो साधक दूसरों को सिखाये, वह अनुभव प्राप्त किया हुआ योग्य अधिकारी हो । साहित्य पढ़कर इस विधि को विधिपूर्वक न अपनाकर कहीं उसका दुरुपयोग न हो। श्री गोयन्काजी का यह भय उचित ही था और है, किन्तु विपश्यना ध्यान की पार्श्वभूमि समझाने के लिए कुछ साहित्य का निर्माण होना आवश्यक था । इसलिए साधकों की यह इच्छा थी कि गोयन्काजी इस विषय पर लिखें । आग्रह करने वालों में मैं भी एक था और मैंने यह भी कहा है कि यह स्पष्ट कर दिया जाय कि जिन्हें इस विषय में रुचि है वे इस पद्धति को साधना शिविर में ही सीखने की कोशिश करें। क्योंकि शिविर में वातावरण की अनुकूलता के साथ योग्य अधिकारी साधक द्वारा गुरु रूप में दिया हुआ मार्गदर्शन उपयोगी तो होता ही है, पर मार्ग में जो कठिनाइयां और बाधाएं आती हैं उस दिशा में योग्य मार्गदर्शन होने से साधना में समुचित प्रगति होकर उस मार्ग में आगे बढ़ने में बड़ी सहायता होती है। श्री गोयन्काजी से गुरु रूप में मिला हुआ मार्गदर्शन योग्य दिशा में प्रगति में सहायक होता है । उसमें भटकने की सम्भावना नहीं रहती और उससे अल्प समय में योग्य प्रगति हो सकती है । श्री सत्यनारायणजी सही रूप में कल्याणमित्र हैं और उन्होंने जो जनकल्याण की दृष्टि से विपश्यना साधना के प्रसार में परिश्रम किया वह सचमुच
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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