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________________ समता धर्म कण' भी जुटा सके तो जो 'मैं-मेरा' नहीं है उनका ‘एक मन' भी मिट्टी में मिलाते हुए नहीं हिचकते । 'मैं-मेरे' के लिए किसी दुर्बल के मुंह का कौर छीनते हुए नहीं झिझकते । “मैं-मेरे" के अन्धेपन में जघन्य से जघन्य पाप कर्म भी अनुचित नहीं लगता। विषमता 'मैं-मेरे' की, 'अहं-मम' भाव की जननी है । अहं-मम भाव विषमता का पोषक है । अहं-मम भाव के कारण ही हम तीव्र लोभ के वशीभूत होकर संग्रह-परिग्रह करते हैं और अनेकों को अभावग्रस्त कर सामाजिक समता की हत्या करते हैं। तीव्र दम्भ के वशीभूत होकर ऊँचे कुल, ऊँचे वर्ण, ऊँची जाति का नशा सिर पर चढ़ाते हैं और समाज में ऊँच-नीच का भेद-भाव पैदा कर सामाजिक समता की हत्या करते हैं । सत्ता के मद में मदहोश होकर निर्बल और भोले लोगों का दमन और शोषण करते हैं और सामाजिक समता की हत्या करते हैं । इस प्रकार आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि भिन्नभिन्न क्षेत्रों में अपने अहं का पोषण करते हुए, वैषम्य पैदा करते हैं। औरों के समान अधिकारों को कुचलते हुए निर्मम पैशाचिक व्यवहार करते हैं और अपने तथा अन्य सबों के दुख का कारण बनते हैं । यह सब समता के अभाव के कारण ही होता है । अपने-पराए का भेद मिटाकर साम्यभाव आए तो ऐसी नृशंसता कर ही न सकें। यदि मैं मिलावट की औषधि बेचने वाला लोभी व्यापारी हूँ तो अपने बीमार बेटे को वैसी औषधि कभी नहीं देता । अपने और पराए का भेद दूर हो तो किसी को भी मिलावट की औषधि नहीं दूंगा । यदि मैं रिश्वतखोर शासक हूँ या शासनाधिकारी हूँ तो अपने बेटे से रिश्वत कभी नहीं लेता। अपने और पराए का भेद दूर हो तो किसी से भी रिश्वत नहीं लूँगा । यदि उच्च वर्ण के मिथ्यादम्भ का शिकार हूँ तो अपने पुत्र को अछूत कहकर कभी नहीं दुत्कारता । अपने और पराए का भेद दूर हो तो किसी को भी अछूत कहकर नहीं दुत्कारूंगा। अपने और पराए का भेद दूर होना ही वैषम्य का दूर होना है। सर्वमंगलकारी साम्यभाव का प्रतिष्ठापित होना है। ___ जहाँ शुद्ध साम्यभाव प्रतिष्ठापित होता है, वहाँ स्व और पर की सीमा टूटती है । परिणामतः शोषण मिटता है, सहकारिता आती है। क्रूरता मिटती है, मृदुता आती है। अन्याय मिटता है, न्याय आता है। संकीर्णता मिटती है, विशालता आती है । अहंभाव-हीनभाव मिटता है, भ्रातृभाव आता है। अधर्म मिटता है, धर्म आता है।
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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