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________________ समता धर्म वहाँ समता सही समता है यह कैसे कहा जा सकता है ? जहाँ उत्तेजित करने वाले आलंबन-उद्दीपन हों तो भी, उत्तेजित हो सकने वाला चित्त ही सुसुप्त हो, वहाँ भी समता सही समता है यह कैसे कहा जा सकता है ? समता नकारात्मक नहीं है; मूढ़ता, मूर्छा, कुण्ठा नहीं है । कोई हमें भाजी की तरह काट जाय और हमें पता ही न चले, ऐसी अचेतन अवस्था नहीं। यह कोई अनस्थेस्या की सूघनी या मोर्फिन का इन्जेक्शन नहीं है । पूर्ण चेतन रहें, फिर भी सम रहें तो ही समता है अन्यथा गहरी नींद में सोने वाला अथवा मूछित अथवा मूढ़ व्यक्ति समता का दम्भ भर सकता है। सुखद से प्रफुल्लित हो उठना और दुखद से मुरझा जाना ही वैषम्य है। दोनों के रहते सन्तुलित-समरस रहना समता है। परन्तु समता हमें अशक्त और कर्मशून्य नहीं बनाती । सच्ची समता आती है तो प्रवृत्ति जागती है । ऐसी प्रवृत्ति परम पुरुषार्थ का रूप धारण करती है । परम पुरुषार्थ में अपनेपराए का भेद नहीं रहता है। ऐसी पुरुषार्थ-प्रदायिनी सनता जितनी सबल होती है, जीवन में उतना मंगल उतरता है। आत्म-मंगल भी, जन-मंगल भी। समता जितनी दुर्बल होती है उतना ही अनर्थ होता है, अपना भी औरों का भी। ___ समता धर्म जीवन-जगत से दूर भागना नहीं है। पलायन नहीं है । जीवन-विमुख होना नहीं है । समता धर्म जीवन-अभिमुख होकर जीना है। जीवन से दूर भागकर आखिर कहाँ जाएँगे ? विषयों से दूर भागकर कहाँ जाएँगे ? सारा संसार विषयों से भरा पड़ा है। विषय हमारा क्या बिगाड़ते हैं ? वे न हमारे शत्रु हैं, न मित्र । न भले हैं, न बुरे । भला-बुरा है उनके प्रति हमारा अपना दृष्टिकोण । अनासक्त अथवा आसक्त दृष्टिकोण । सम अथवा विषम दृष्टिकोण । यदि हम विषयों से दूर भागने के बजाय उनसे उत्पन्न होने वाले विकारों को समता से यानी अनासक्ति से देखना सीख जाएँ तो उन विषयों के रहते हुए भी विकारों को निस्तेज कर लेंगे । समता से देखना ही विशेषरूप से देखना है। प्रज्ञापूर्वक देखना है । सम्यक्दृष्टि से देखना है । यही विदर्शना है, यही विपश्यना है । समतामयी विपश्यना की दृष्टि प्राप्त होती है तो "मैं-मेरे" का और “राग-द्वेष" का कोहरा दूर होता है । जो जैसा है, वैसा ही दीखता है। और तब हम अन्ध प्रतिक्रिया. करना छोड़ देते हैं । समता की सुदृढ़ भूमि पर स्थिर होकर हम जो कुछ करते हैं, वह
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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