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________________ २. शुद्ध धर्म लम्बी परम्परा के कारण धर्म के नाम पर जो थोथे छिलके बच गये हैं, उनसे छुटकारा लें और शुद्ध धर्म के सार को ग्रहण करें । धर्म का सार ही मंगलदायक है, सार्थक है । केवल छिलके निरर्थक हैं, हानिप्रद हैं । सार प्राप्त होने पर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है । शुद्ध धर्म का सार शील है, सदाचार है । वाणी और शरीर के दुष्कर्मों से बचना है । शरीर और वाणी के दुष्कर्मों में लगे रहें तो मन की गन्दगी यानी विकार बढ़ेंगे ही। क्योंकि शरीर और वाणी का हर दुष्कर्म गन्दे मन से ही सम्पन्न होता है । बिना चित्त को दूषित किए हिंसा, चोरी, व्यभिचार, असत्य अथवा गन्दा भाषण, अथवा नशे का सेवन नहीं हो सकता । शरीर और वाणी के दुष्कर्मों से मन का मैल बढ़ता है, घटता नहीं । मन का हर मैल हमें दुखी बनाता है, सुखी नहीं । शुद्ध धर्म का सार समाधि है । किसी कल्पनाविहीन यथार्थ आलम्बन के सहारे चित्त को एकाग्र कर लेना समाधि है । जैसे एकाग्रता -विहीन चित्त मैला रहता है, वैसे ही कल्पना या कामना के आधार पर एकाग्र हुआ चित्त भी । मैला चित्त हमें दुखी बनाता है, सुखी नहीं । शुद्ध धर्म का सार प्रज्ञा है । जीवन व्यवहार में आने वाले सभी बाह्य आलम्बनों को और अपनी भीतरी मनोस्थितियों को यथाभूत, यथास्वभाव जानते रहना, उनके साथ तादात्म्य स्थापित करने के बजाय, उनसे अनासक्त रहना ही प्रज्ञा है । राग, द्वेष, मोह और तज्जन्य आसक्तियां मन की मैल
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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