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________________ १०२ धर्म : जीवन जीने की कला करुणा, मुदिता और समता के सद्गुणों से स्वभावतः भरता है । साधक स्वयं तो कृतकृत्य होता ही है, समाज के लिए भी सुख-शांति का कारण बनता है। सौभाग्य से यह आत्म-निरीक्षण यानी स्व-निरीक्षण का अभ्यास, विपश्यना की साधना-विधि ब्रह्मदेश में दो हजार पच्चीस सौ वर्ष से आज तक अपने शुद्ध रूप में जीवित है। मुझे सौभाग्य से इस विधि को सीखने का कल्याणकारी अवसर प्राप्त हुआ। शारीरिक रोग के साथ-साथ मानसिक विकारों एवं आसक्ति भरे तनावों से छुटकारा पाने का रास्ता मिला। सचमुच एक नया जीवन ही मिला। धर्म का मर्म जीवन में उतर सकने की एक मंगल विधा प्राप्त हुई। अब विगत पांच वर्षों से भारत में आया हूँ। यह विधि तो इसी देश की पुरातन निधि है । पवित्र सम्पदा है। किसी भी कारण से यहां विलुप्त हो गई । मैं तो भागीरथ की तरह इस खोई हुई धर्म-गंगा को ब्रह्मदेश से यहाँ इस देश में पुनः ले आया हूँ और जिसे अपना बड़ा सौभाग्य मानता हूँ। ___ याद करता हूँ कि विकारों से विकृत होकर मैं कितना दुखी रहा करता था और इन विकारों से छुटकारा पाकर कितना दुःख-मुक्त हुआ, सुखलाभी हुआ। इसलिए जी चाहता है कि अधिक से अधिक लोग जो अपने विकारों से विकृत हैं और इसलिए दुखी हैं वे इस कल्याणकारी विधि द्वारा विकारों से इछुटकारा पाना सीखें और दुख-मुक्त होकर सुखलाभी हों। याद करता हूँ कि जब मैं विकारों से विकृत होकर दुखी होता था तो अपना दुख अपने तक सीमित न रखकर औरों को बांटता था। औरों को भी दुखी बनाता था । उस समय मेरे पास बांटने के लिए दुख ही था । अब जी चाहता है कि इस कल्याणकारी विधि द्वारा जितना-जितना विकारों से उन्मुक्त हुआ और फलतः जो भी यत्किंचित सुख-शांति मिली, उसे लोगों में बांटू । इसे बाँटने पर सुख-संवर्धन होता है । मन प्रसन्न होता है। इस दस दिन के शिविरों में लोग अक्सर मुरझाए हुए चेहरे लेकर आते हैं और शिविर समाप्ति पर खिले हुए चेहरों से घर लौटते हैं तो सचमुच मन सुख-संतोष से भर उठता है । अधिक से अधिक लोग इस मंगलकारी विधि का लाभ उठाकर सुखलाभी हों, अधिक से अधिक लोगों का भला हो, कल्याण हो, मंगल हो ! यही धर्मकामना है। भवतु सब्ब मंगलं ! ("सूचना केन्द्र, अजमेर में दि० ३० सितम्बर, ७५ को दिए गए सार्वजनिक प्रवचन का सारांश-संग्राहक : श्री रामेश्वर दास गर्ग")
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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