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________________ अथ RECTRE m ail चार आराधना स्वरूप ...... | लिख्यते ॥ : . . .. ............ ॥ दोहा ॥.. :: .. · नष्ट किये रागादि जिनं. तिन पद हिरदय धार । -रूप चार आराधना; कहूं स्वपर. हितकारः ।।..१॥ . .जोगीरासा-सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप चार अराधन जैहैं। भव सागर से. भव्य जीवन कू निश्चै पार करे है।। इन संक्षेप स्वरूप, बखानूं सुनकर कर संरधाना । फिर इनके अनुसार चलों भव्य जो पाओ. शिवथाना.।।.२ ॥ सांचें देव मुश्चत सांचे गुरुकी दृढ़ श्रिद्धा धारो । ताही को जिन आगम मांही सम्यग्दर्श संचारों ॥ हित उपदेशी....बीतरागः संवा . देव. : सांचें. हैं । तत्व स्वरूप यथारथ भी सोई.श्रुत. .भाले हैं। .. विषय आश:आरंभ परिग्रह. जिनके बिलकुल नाही। ज्ञान ध्यान तप लीन रहैं सतगुरु से जानो भाई ॥ संशय विपरिय अनध्यवसायजु विन वत्वन को. जाने। साही को आगम के हावा सम्यग्ज्ञानी मानें ॥ १ ॥ जीव, अजीव करम का आश्रय बंध अरु संवर भाई ।
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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