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________________ श्री परमात्मने नमः | ( o ) W ॥ ॐ ॥ नमः सिद्धेभ्यः । 1 श्री वीतरागायनमः । श्री "जिमयनमः ॥ श्री ऋषभदेवाय नमः * * * श्री. महावीरायनमः । ४१३४५२६३०२०८२०३१७७७४९५१२१९१९९९९९९९९९९९९९९९९९ ९९९९९९९९९६०४५२. श्री ऋषभ निर्वाण सं० ७६ अङ्क प्रमाण श्री महाबीर निर्वाणा सं० २४५२ · यों तो धर्म थोढा बहुत सभी साधन करते हैं परन्तु यथावत धर्म क्षत्री बीर पुरुष ही धारण कर सकते हैं । जिनका ममत्वं 'कनक कामिनी में जादा है. वे प्रायः कम धारण कर सकते हैं इस लिये लोभ और काम को जीतना योग्य है. 1 · . हमको मान कषाय के वस कोई धर्म विरुद्ध विपय या अनुचित कथन नहीं पोषना चाहिये । जन धर्म का उसूल आत्मा को निरमैल करना है। जिनेन्द्र भगवान की पूष का अचित्य फल हैं परंतु हमारी क्रिया वाज वक्त ठीक नहीं वनती इससे लौकिक · :: भी. उच्च प्रतिष्ठा प्रगट नहीं होती है। हम में से बहुतों ने तो मन्दिर की स्नान स्थान Bath: room समझ लिया है 'मंदिर जी में तेलादि' लगाकर गए स्नान किया दर्शन कीया या किसी पुजारी से अर्धले चढ़ा घर वापिस आगए सो ऐसे भाइयों से प्रार्थना है कि सब कार्यों का नफा नुकसान सोचना चाहिए। पुण्य का संचय जादा करना चाहिए । भावों को मंदिर में स्थिर रखना चाहिए । कई मतमतांतर के भेद स े हम जैन धर्म को तरापथ कहते हैं । जैनी पूजा करने से पहिले श्रहन्त भगवान की स्थापना कर लेते हैं क्योंकि वे निर्दोष देव को पूजते हैं। धर्म में प्रत्यक्ष और परोक्ष, कथन से दो भेद हैं. प्रत्यक्ष कथन को कसौटी पर परख लीजिये। और परोक्ष को अनुमान से। जो केवल ज्ञान द्वारा कहा हुआ है मानले । जैसेहम यह जानेकि - आप अपने निज कार्य में झूठ नहीं बोलते हैं तो यह स्वयं न्याय से सिद्ध है कि आप दूसरे के कार्य में झूठ नहीं बोलते हैं। पंस आपके बचनः सत्य प्रमाण हैं इसी तरह धर्म के शास्त्र की चरचा जाननी यानी प्रत्यक्ष ठीक है तो परोक्ष स्वयं ठीक है। · *
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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