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________________ फेर दी उस समयं जैनियों ने उन हिंसामय यज्ञ यांगादि का उच्छेद करना प्रारंभ किया था वसं तभी से ब्राहाणों के चित्त में .. जनों के प्रति ष बढ़ने लगा, परंतु फिरभी भागवतादि महा पुराणों में रिपमदेव के विषय में गौरव युकं उल्लेख मिल रहा है। अम्ब जाक्ष सरकार एम० ए० वी० एल० लिखित जैन दर्शन जैन धर्म के जैन हितपी भाग-१२ अङ्क ९-१० में छपा है उस में के कुछ वाक्य। (१) यह अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैन धर्म चौद्ध धर्म की शाखा नहीं है ( महावीर स्वामी जैन धर्म के स्थापक नहीं है उन्होंने केवल प्राचीन धर्म का प्रचार किया है (२) जैन दर्शन में जीव तत्व को जैसी विस्तृत मालोचना है और चैसी किसी भी दर्शन में नहीं है। ... आवश्यक १० वोल । (१.) जैन धर्म आत्मा का निज़ स्वभाव है। और एक मात्र उसी के द्वारा सुख सम्पादन किया जा सका है। (२) सुख मोक्ष में ही है जिसको कि प्राप्त कर के यह अनादि कर्म मल से संसार चतुर्गति में परिभ्रमण करने वाला अंशुद्ध और दुखी अंगत्मा निज परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर सदैव आनन्द में मग्न रहा करता है। (३) स्मरण रक्खो कि मोक्ष :मांगने और किसी के देने से नहीं मिलती । उसकी प्राप्ति हमारी पूर्ण वीतरागतो और 'पुरुषार्थ से कर्म मल और उनके कारण नष्ट करने पर ही अवलम्बित है। . (४) स्यावाद सत्यता का स्वरुप है और वस्तु के अनन्त धमों का यथार्थ कथन कर सकता है।
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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