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________________ .. निवेदन ॥ प्रिय बंधुवा । यह अमृतधारा रूपी धर्मापदेश बडे परिश्रम से प्रकाश कर आप साहयों के कर कमलों में भेद करता हूं। पाया है कि श्राप धर्मश मुंभ मॅद युद्धी पर क्षमा भाव रखते हुए जैन अजैन समाज में धर्मोनति करेंगे। इस पुस्तक से धर्माप. देश समय प्रथम सिद्धी, विदेह क्षेत्र के विद्यमान तीर्थंकरों और तीन लोक के हतम शतम चैत्यालयों को नमस्कार :कर,.एक. सामोकार मँन की जाप और निम्न मॅन की २१ बार जाप देकर' व्याख्यान शुरू करने की पा करें। . . ' . ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कार्ति मुख मंदरे कुरु कुरु स्वाहः । ' ..२-इसको अविनय करने या रही में डालने से, पापाभव होगा। पढने व नित्य सम्र को सुनाने से, सदा मङ्गल,होगा। .. '. ३-यदि अविनय व रही का कारण हो, तो किसी जैन मंदिर या अन्य भाई को देने की छपा करें। . . . . — ४-भारत में प्रत्येक जैन मंदिर में, एक चौकी पर यह पुस्तक हर वक्त विराजमान रहे ताकि दर्शक पढ़ सकसे प्रबंध की मैं प्रार्थना करता हूं। . . . . . ५-भारत के प्रत्येक लाइब्रेरी, वाचनालय, संस्था, पाठशाला, जैन मंदिर इत्यादि में यह पुस्तक रखो जाने का में प्रस्ताव करता हूं। : .. ... . . . . . -यह प्रत्येक मनुष्य वनीको विचार रहे कि जो तीनलोकप, शिखर पर, सिद्ध भगवान, परमात्मा, ईश्वर, खुदा मौजूद हैं तथा विदेह क्षेत्र में केवली भगवान, उनके शान में, हमारे सर्व प्रवाई के कर्तव्य झलकते हैं। इस लिए हम लोगों को सोच विचार कर शुभ और न्याय पूर्वक कार्य करना उचित है तांकि बुराइयों से चचें। कहावत भी हैं कि भाई अकेले में भी यदि कोई साक्षो नहीं। है तो ईश्वर, परमात्मा, खुदा, तो शाक्षी है वह तो देखता है". .. ७-जो कोई, किसी विषय पर मुस से पत्र व्यवहार करना चाहें, . 'तो निम्न पते पर कर सकते हैं। समाज हितैषी....... द्वारकाप्रसाद जैन, C.K.. · पोस्टमास्टर भरतपुर. शहर--(राजपूताना) .
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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