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________________ . . Che.. '. . . . . . ..' . . . कोबाधा से भी अधिक वापीको कुर भी दुःख न समझ उस मधुयिदु के स्वाद को लेता हुआ भयो को महा मुखी मानने लगा । : : - इस कारण वह अधम पथिक उन समस्त दुःखो को भूलकर उस मधु करण के स्वाद में ही आशक्त हो फिर मधुविद्य में पड़ने की प्रमिलाया करता हुआ सटकता रहा। सो है भाई ! उस समय पथिक के जितना सुखं दुःख है उतना ही सुख दुःख महाकष्टों की खानि रूप इस संसार रूपी घर में इस जीव के है।... सो जिनेंद्र भगवान ने कहा है कि वह वन तो पाप है, वह पथिक है सो जीव है। हस्ती हैं सो मृत्युः (यमराज) की समान है। वह सरतम्य है सो जीव की आयु (उमर) है और मन्ना है. सो संसार है । अजगर है सो नरक है स्वेत. स्याम दो. सूपक है. सौ.शुक्ला और कृष्णा दो पक्ष हैं, जो उमर को घटा रहे हैं । और चार सर्प है सो काध मान माया लोभ ये चार कंपाय हैं । तयां मधुमक्षिका है सो शरीर के रोग हैं। मधू के बिंदु का जो खाद हैं. सो इद्रिय जनित सुख (-सुखाभास मात्र) हैं। इस प्रकार संसार में सुख दुःख का विभाग है। वास्त में इस संसार में भूमण करते. हुए जीवों के सुप्त कुःख का बिभाग किया जाय तो मेरुपर्वत की बराबर तो दुःख है और सरसों की वरावर सुख है। इस कारण योग करने में ही निरन्तर उझम झरना चाहिए। . :::.'.. ... .... . ... . ... . .. Fr. .: :.C
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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