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________________ 1 जब चिन्तू तब सहस्र फल : कोड़ा कोड़ि श्रनन्त फल ३४. ) लक्खा ग़मन करे । जिनंवर दिठ्ठे ॥ १५ ॥ तब ॥ इति दर्शनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ . जिन दर्शन से श्रचित्य लाभ और फल है जिनेंद्र भगधान की मुद्रा शांत रूप पद्मासन व खडगासन श्रात्मलीन होती है। श्री मूलाचार जी ग्रंथ गाथा ५०२ पत्र २०७ में वर्णन है । • वीतराग जिनराज का दर्शन कठिन नवीन | तिनका निःफल जन्म है ले दर्शन हीन ॥ दर्शन से कई प्रकार के लाभ के, यथावत भगवत स्वरूप मालुम हो जाता है | देखिए प्राचीन समय में या अव भी कहीं. कहीं या तीर्थ क्षेत्रों में आपने देखा या सुना होगा कि जिन मुद्रा " जैन मंदिर के शिखर के चारों तरफ श्रालय में स्थापित की जायां करती थी या मौजूद है। यह अब भी नियम है कि जैन मंदिर के चारों तरफ आलंय बनाये जाते हैं। वह सत्र इसी वास्ते कि जैन : धर्म जीव मात्र का धर्म है ताकि चांडालादि भी अपना करयाय कर सके परंतु आज कल यह प्रचार बंद सा होता जाता हैं।. ऐसे महा पवित्र (चैत्यालय ) जिन या जैन मंदिर में स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहन प्रमाद अभिमान रहित विनय सहित जाना: चाहिए। रोगी हाथ पैर धो वस्त्र बदल कर जा सकता है परंतु शराब पीकर, वैश्या' तथा जो प्रशंगादि श्रभिमान सहित बिनय रहित वाला डीन मंदिर में प्रवेश न करें क्यों कि ऐसी हालतों से पाप बज्र मई हो जाता है और योग्य हालत से जाने में पाप कर्म छूट जाता है आपने सुना भी होगा कि बहुत से हमारे भीन भाई + भी. यों कहते हैं कि "जैन मंदिर में नहीं जामां, चाहे हस्ती के नौवें : दब जाना" सो हे भाइयों यह कहावत तो ठोक है मगर किस हालत में नहीं जाना सो इसका विचार उपयुक्त वाक्यों से कर लेना । बूस टांत यह है कि जब तक हम धर्म का स्वरूप कहते चले जायेंगे, उस वक्त तक सब मानने को तय्यार होंगे परंतु '' · जहाँ "जैन धर्म" शब्द कह दिया जावे, बस बहुत से एक दम • -
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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