SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ..( ३२ ). : जिनघर पूजा नेम करो नित मंगल दायन । .. .. धुंध संजम आदरहु धरह चित्र.श्री गुरु पायन । .. निज वित संमान अभिमान विन सुकर सुपत्तहि दान कर ...... यो मुनि सुधर्म घट कर्म भज नरभो लाहो लेहुँ नर ।। . . . . ' अर्थाथ पाप रूपी अन्धेरे के दूर करने को. सूर्य के प्रकाश समान जो स्वाध्याय सो नित्य कर । संसार के दुखों को दूर करने को.. चन्द्र समान शीतल करने वाला जो सप सो कर मंगल की देने वाली: जो भगवान की पूजा उसको नित्य. 'करने : का नियम कर । हे बुद्धिमान ! श्रीगुरु के चरणों में चित देकर संयम का ग्रहण कर । अपनी वित्त समान अभिमान छोड़कर. मुख का करने वाला सुपात्र को दान दे। यह जो पट कर्म श्रेष्ट धर्म कहिये जिन शासन में कहे हैं समको गहण कर के मनुष्य जन्म मुंफल कर ॥ तुम लोगों को परमात्मा ईश्वर. जिनेंद्र के नित्य दर्शन करना चाहिए। दर्शन कैसा है सो “दर्शन स्तोत्र से यहां प्रगट करते हैं। अथ दर्शन स्तोत्रम । दर्शन देवः देवस्य दर्शन पापनाशनम् । दर्शन स्वर्ग सोपानं दर्शन मोक्षसाधनम् ॥ १॥ दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूनां. बन्दनेन च । .... न चिरं विष्टात प्रापं. छिद्रहस्ते. यथोदकम् ॥ २॥
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy