SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को भी: करोड़ो वर्ष लगे । ( यह भी ध्यान रखें कि अक्षर भी कोई विभिन्न प्रज्ञार का अनोचे हों किन्तु नै हो, जैसे एक लोक को गिन्ती में ३२. सातकर हमारे सुप्रसिद्ध अथ. पम्पराण: साढ़े छह लामा (६५००००) के करीब है। तब तो श्री जिनवाणीके अक्षरों की सशं शिवने बड़े अाश्चर्यजनक रूपको धारण करके हमाही पांखों के सामने या उपस्थित होता है । यहालक कि हमारे पहुभातागरस कहेंगे कि शी जिनमाणक अक्षर संख्या से बाहर हैं। उनकी गिनकर, अंकों में बताना मन्यों की शक्षिले बाहर हैं। इस उदाइरसे इन लेखक.. पाठक महोदय मह, प्रकार क गए होगे कि दिलो बन्तुको महान गणमासी श्रको द्वारा पता नेले.. उसका पूरा असलो महत्व चित्तपरति नहीं होती. इसी लिये पल्य के बों को महान संख्यांकी. इस रुपमे हारी एष्टिको सामने रखा गया है। ...... इस प्रकार उप- शंकाओं का थोडासा उत्तर दे चुकने गर पत्र मूल बाजा रानोले लिना जाता है जिससे मान होगा कि श्री सपना लिाग संजाल किले 'जैन प्रस्थ प्राचार और किस प्रकार निकाला गया है और कैसे यह पूर्णनयां शुद्ध मोर ठीक है। (१) एक व्यवहार पल्पके रोमो को संख्या ४१३४५.२६ ३०३.०८३:३९७७३१९९२१,२२००००१२०१:१४:०००००० अर्थात २ शाक और १८ शस्य हुँख ४। प्रक मोरण है। शाच प्रमाण मोमसारजीको श्रीमान् प० टोडर मजंजी व टीका कोड प्राधिकार के प्रारम्स में अलौकिक रासित (२) श्री गोमसार कर्मकाईको श्रीमान पक्ष मनोहरलालजो. त छोटी टीकाकी भूमिका
SR No.010185
Book TitleDharm Jain Updesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarkaprasad Jain
PublisherMahavir Digambar Jain Mandir Aligarh
Publication Year1926
Total Pages151
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy