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________________ ८० महावीर ३. निश्चय : उस समय के उनके जीवन का विस्तार सहित विवरण यहाँ देना अशक्य है । उनमें से कुछ प्रसंगों का ही उल्लेख किया जा सकेगा । अपने साधना काल में उन्होंने आचरण सम्बन्धी कुछ बातें तय की थी। पहली यह कि दूसरे की मदद की अपेक्षा न रखना, अपने पुरुषार्थ और उत्साह से ही ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पाना । उनका अभिप्राय था कि अन्य की सहायता से ज्ञान प्राप्त हो ही नही सकता । दूसरी यह कि जो उपसर्ग' और परीपह उपस्थित हों उनसे बचने की चेष्टा न करना । उनका ऐसा अभिप्राय था कि उपसर्ग और परीपह सहन करने से ही पापकर्म क्षय होते हैं और चित्त की शुद्धि होती है । दुःख मात्र पाप कर्म का फल है और वह जब आ पड़े तो उसे दूर करने का प्रयत्न आज होनेवाले दुःख को भविष्य की ओर ठेलने जैसा है । क्योकि फल भोगे विना कभी निस्तार नहीं होता । ४. उपसर्ग और परीपह : इसलिए बारह वर्ष उन्होने ऐसे प्रदेशों में घूमते हुए बिताये जिनमें उन्हें अधिक से अधिक कष्ट हो । जहाँ के लोग क्रूर, आतिथ्य भावनासे विहीन, संत-द्रोही, गरीबों को त्रास देनेवाले, निष्कारण १ - दूसरे प्राणियों द्वारा उपस्थित विघ्न एवं क्लेश । २ – नैसर्गिक आपत्ति |
SR No.010177
Book TitleBuddha aur Mahavira tatha Do Bhashan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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