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________________ टिप्पणियाँ __१. सिद्धार्थकी विवेक-बुद्धि जो मनुष्य हमेशा आगे बढ़ने की वृत्तिवाला होता है वह एक ही स्थिति में कभी पड़ा नहीं रहता। वह प्रत्येक वस्तु में से सार-असार शोधकर, सार को जान लेने योग्य प्रवृत्ति कर असार का त्याग करता है। ऐसी सारासार की चलनी का नाम ही विवेक है। विवेक और विचार उन्नत्ति के द्वार की चाबियाँ हैं। कई लोग अत्यंत पुरुषार्थी होते हैं। वे भिखारी की स्थितिमें से श्रीमान् बनते हैं। समाज के एकदम निचले स्तर में से पराक्रम और बुद्धि के द्वारा ठेठ ऊपरी स्तर पर पहुंच जाते हैं, और अपार जन-प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं। मट्ठर समझे जानेवाले विद्यार्थी केवल लगन और उद्योग से समर्थ पंडित हो जाते हैं। यह सब पुरुषार्थे की महिमा है। पुरुषार्थ के विना कोई भी स्थिति या यश प्राप्त नहीं होता। लेकिन पुरुषार्थ के साथ यदि विवेक न हो तो विकास नहीं होता । विकास की इच्छावाला मनुष्य जिस वस्तु के लिए पुरुपार्थ कर रहा हो, उस वस्तु को अपना अतिम ध्येय कदापि नहीं मानता; लेकिन उसे प्राप्त करने के लिए जिस शक्ति की जरूरत होती है उसे
SR No.010177
Book TitleBuddha aur Mahavira tatha Do Bhashan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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