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________________ इच्छा की। स्वार्थ-त्याग से, इन्द्रिय-जय से,मनो-संयम से, चित्त की पवित्रता से, करुणा को अतिशयता से, प्राणि-मात्र के प्रति अत्यंत प्रेम से दूसरों के दुःखों का नाश करने में अपनी सारी शक्ति अर्पण करनेके लिए निरंतर तत्परता से, अपनी अत्यंत कर्तव्यपरायणता से, निष्कामता से, अनासक्ति से और निरहंकारीपन से गुरुजनों की सेवा कर उनके कृपापात्र होने से वे मनुष्य-मात्र के लिए पूजनीय हुए। चाहें तो हम भी ऐसे पवित्र हो सकते हैं, इतने कर्तव्यपरायण हो सकते हैं, इतनी करुणावृत्ति प्राप्त कर सकते हैं, इतने निष्काम, अनासक्त और निरहंकारी हो सकते हैं। ऐसे बनने का हमारा निरंतर प्रयत्न रहे, यही उनकी उपासना करने का हेतु है। ऐसा कह सकते हैं कि जितने अंशों मे हम उनके समान बनते हैं, उतने अंशो में हम उनके समीप पहुँच जाते हैं। यदि हमारा उनके जैसे बनने का प्रयत्न नहीं हो तो हमारे द्वारा किया गया उनका नामस्मरण भी वृथा है और इस नाम-स्मरण से उनके समीप पहुँचने की आशा रखना भी व्यर्थ है। यह जीवन-परिचय पढ़कर पाठक महापुरुपो की पूजा ही करता रहे, इतना ही पर्याप्त नहीं है। उनकी महत्ता किसलिए है यह परखने की शक्ति प्राप्त हो और उन-जैसे बनने में प्रयत्नशील हो, तो ही इस पुस्तक के पढ़ने का श्रम सफल माना जायगा ।
SR No.010177
Book TitleBuddha aur Mahavira tatha Do Bhashan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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