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________________ १९८ महावीर प्रयत्न करते हैं । जैसे किरण के बारे में 'ईयर' तत्त्व का आन्दोलन प्रकाश के अनुभव और विस्तार के कारण की कल्पना देता है। आन्दोलन की ऐसी कल्पना 'वाद' कही जाती है । ये आन्दोलन हैं ही, यह प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता । ऐसी कल्पना जितनी सरल और सब स्थूल परिणामों को समझाने में ठीक होती है, उतनी ही वह विशेष ग्राह्य होती है । परन्तु भिन्न-भिन्न विचारक जब भिन्नभिन्न कल्पनाएं और वाद रचकर एक ही परिणाम को समझाते हैं, तब इन वादों में मतभेद पैदा हो जाता है। मायावाद, पुनर्जन्मबाद आदि ऐसे वाद हैं। ये जीवन और जगत को समझानेवाली कल्पनाएँ ही हैं, यह नहीं भूलना चाहिए। जिसकी बुद्धि में जो वाद रुचिकर हो उसे स्वीकार कर दोनों को समझ लेने में दोष नहीं है। लेकिन इस वाद को जब प्रमाणित वस्तु के रूप में स्वीकार किया जाता है, तब वाद-भेद के कारण झगड़े की प्रवृत्ति आ जाती है । धर्म के विपय में अनेक मत-पंथ अपने वाद को विशेष सयुक्तिक बताने में माथा पच्ची करते रहते हैं। इतने से ही यदि वे रुक नाते तो ठीक होता; लेकिन जब उन वादों को सिद्धान्त के रूप में मानने पर उससे प्रत्यक्ष अनुभव में आनेवाले परिणामों से भिन्न परिणामों का तर्क - शास्त्र के नियमों से अनुमान निकालकर जीवन का ध्येय, धर्माचार की व्यवस्था, नीति-नियम, भोग तथा संयम की मर्यादाओं आदि की रचना की जाती है, तब तो कठिनाइयों का अन्त ही नहीं रहता । - जिज्ञासु को प्रारम्भ में कोई एक वाद स्वीकार तो करना ही घड़ता है, लेकिन उसे सिद्धांत मानकर अत्याग्रह नही रखना
SR No.010177
Book TitleBuddha aur Mahavira tatha Do Bhashan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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