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________________ ८४ महावीर थे । जहाँ मान मिलने की सम्भावना होती वहाँ से वे चल पड़ते । उनके चित्त में अभी भी शांति न थी । फिर भी उनकी लम्बी तपश्चर्या का स्वाभाविक प्रभाव लोगों पर होने लगा और उनकी अनिच्छा होने पर भी वे धीरे-धीरे पूजनीय होते गये 1 ९. अन्तिम उपसर्ग : जिस प्रकार बारह वर्ष व्यतीत हो गये । बारहवें वर्ष में उनको सबसे कठिन उपसर्ग हुआ। एक गाँव में एक पेड़ के नीचे वे ध्यानस्थ होकर बैठे थे । उसी समय एक ग्वाला बैठ चराते हुए वहाँ माया । किसी कार्य का स्मरण होने से बैठों को महावीर के सुपुर्द कर वह गाँव में गया। महावीर ध्यानस्थ थे। उन्होंने ग्वाले का कहा कुछ सुना नहीं। लेकिन ग्वाले ने उनके मौन को सम्मति मान ली बैल, चुरते - चरतें दूर चले गये। थोड़ी देर बाद ग्वाला आकर देखता है तो बैठ नही । उसने महावीर से पूंछा - परन्तु, ध्यानस्थ होने से उन्होंने कुछ नहीं सुना । इससे ग्वाले को महावीर पर बहुत क्रोध आया और उसने उनके कानों पर एक प्रकार का भयंकर आघात' किया । एक वैद्य ने उनके कानों को अच्छा किया, परन्तु प्रख्भ इतना भयानक था कि अत्यंत धैर्यवान महावीर के मुँह से भी सुख-क्रिया के समय चीख निकल पड़ी थी। 1 लामू में लिखा है कि कानो में खूँटियाँ लगा दीं। लेकिन इतना तो निश्चित है कि चोट सख्त की गई ।
SR No.010177
Book TitleBuddha aur Mahavira tatha Do Bhashan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishorlal Mashruvala, Jamnalal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1950
Total Pages163
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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