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________________ संसारी मुक्त धर्म अधर्म पुदगल आकाश अणु संघात जीव - जीव एक चेतन द्रव्य है जो शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण और पौदगलिक आठ घाती कर्मों से अनादि काल से आवृत्त है। ये चेतन द्रव्य ही ऐसा है जिसके कारण मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी प्राणियों का वास्तविक स्वरूप है अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य, अनन्तश्रद्धा और अनन्त सुख से युक्त होती है। इसी को 'अनन्त चतुष्टय' भी कहते हैं। यह आत्मा की शुद्ध अवस्था का द्योतक है। किन्तु जब पुदगल' से सम्बन्धित हो जाता है तब 'जीव' कहलाता है। जीव संसारी है और आत्मा स्वयंप्रकाश है और अन्य वस्तुओं को भी आलोकित करता है। आत्मा नित्य और चेतन है यह जगह नहीं घेरता है। इसीलिये 'जीव' की परिभाषा इन शब्दों में दी गयी है- 'चेतना लक्षणेजीवः' । यह जैनों का जीव विचार न्यायवैशेषिक से भिन्न है, क्योंकि न्याय वैशेषिक में 'चैतन्य' को आत्मा का 'आगन्तुक लक्षण' माना गया है। आत्मा का शुद्ध रूप इन आठ प्रकार के कर्मों से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय से आवृत्त होने के कारण इस संसार दशा में तिरोहित रहता है। सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चरित्र के निष्ठापूर्वक सतत् देखने से जब घाती समस्त कर्मों का पूर्णतया क्षय या विनाश हो जाता है तब मोक्षावस्था में जीव के इस नैसर्गिक निर्मल स्वरूप का प्राकट्य होता है। जीव दो प्रकार के होते हैं- मुक्त और बद्ध । जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया, वे मुक्त कहलाते हैं। ये अनन्त चतुष्टय से सम्पन्न होकर निरन्तर उर्ध्व गतिशील रहता है। और जो 'बन्धन' में होता है वह 'बद्ध 1 पूर्यत गलन्तीति पुद्गलाः ।
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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