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________________ आदि शब्दों का प्रयोग वेदान्त में प्रायः पर्यायों के रुप में किया जाता है। भाष्यकार ने माया शक्ति को "अविद्यात्मिका" कहकर माया और अविद्या में अभेद बतलाया है। इसी अविद्या सिद्धान्त के आधार पर ही अद्वैताचार्य जगत्सृष्टि की व्याख्या प्रस्तुत करते है। ___ किन्तु शङ्करोत्तर अद्वैतवेदान्त दर्शन में माया और अविद्या को लेकर दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न है। मण्डन मिश्र जीव को अविद्या का आश्रय और ब्रह्म को अविद्या का विषय मानते है। वे दृष्टि-सृष्टिवाद के पोषक हैं। विशुद्ध विज्ञान स्वरूप ब्रह्म अविद्या का आश्रय नहीं हो सकता है जीव ही अविद्या का आश्रय है, यद्यपि जीव स्वयं अविद्या का कार्य है। अविद्या स्वयं सदसदनिर्वचनीय अतः उसका जीव से सम्बन्ध भी अनिर्वचनीय है। अविद्या का स्वभाव स्वयं विरोधात्मक है। यदि उसमें विरोध न हो तो वह सत् वस्तु बन जायेगी। अविद्या और जीव को बीज और अकुर के समान अन्योन्याश्रित और अनादिचक्रवत् माना गया है। जीवों में अविद्या नैसर्गिक और विद्या आगन्तुक है। अविद्या के आवरण और विक्षेप दो शक्तियों को मण्डन मिश्र दो रूप मानते है। वाचस्पति मिश्र भी ब्रह्म को 'अविद्या द्वितय सचिव' कहते है। इसका अर्थ हैमूला अविद्या और तूला अविद्या। अविद्या का एक रूप मानसिक मानते है जिसे टीकाकार अमलानन्द ने 'पूर्वापूर्व भ्रमसंस्कार' बताया है। जीव का कारण भ्रमसंस्कार है और इस भ्रम संस्कार का कारण है पूर्वापूर्वभ्रमसंस्कार। इस प्रकार पूर्वापूर्व भ्रम संस्कार की अनादि परम्परा मानसिक अविद्या है। अविद्या का दूसरा रूप वैषयिक मानते है- जो जीव तथा जगत का उपादान कारण है। यह अविद्या, भावरूप, अनादि और सदसद् 'ब्रह्मसिद्धि-पृ०६-१२ २ भागती- मंगलाचरण। 343
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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