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________________ च. मिथ्यात्व का चतुर्थ लक्षण है- स्वाश्रयनिष्ठ- अत्यन्ताभाव- प्रतियोगित्वं मिथ्यात्वं है। चित्सुख द्वारा दिया गया लक्षण है। इस पर व्यासतीर्थ ने आक्षेप लगाया कि अत्यन्ताभाव को तात्विक मानने पर द्वैतावन्ति अर्थात् अद्वैतहानि होगी। इसपर मधुसूदन सरस्वती पूर्वोक्त प्रकार से ही स्पष्ट करते है कि प्रपञ्च के अत्यन्ताभाव से अद्वैतहानि नहीं होती है। प्रपञ्च का पाँचवा लक्षण पूर्वपक्षी द्वारा दिया गया है सद्विविक्तत्व मिथ्यात्व' । अर्थात् जो सद् से भिन्न है वह मिथ्या है। इस लक्षण को आनन्दबोध ने दिया और व्यासतीर्थ ने तीन विकल्प उठाये- (१) सत्ता का अर्थ १. सत् जाति है या (२) अबाध्य वस्तु (३) या ब्रह्म प्रथम विकल्प में प्रपञ्च में सिद्ध साधन दोष है। मधुसूदन सरस्वती द्वारा सत् की परिभाषा- 'सत्त्वं च प्रमाणसिद्धत्वम्’ दी गयी है अर्थात् जो प्रमाण सिद्ध है वह सत् है। इस लक्षण के द्वारा व्यासतीर्थ के तीनों विकल्पों को अप्रासंगिक बना दिया है। जगत की सत्ता प्रमाणतः सिद्ध नहीं है। प्रमाणसिद्ध ब्रह्म की सत्ता है अतएव जगत सत् से भिन्न है। इस प्रकार मिथ्यात्व के पांचों लक्षणों को मधुसूदन सरस्वती ने निर्दोष सिद्ध किया। अविद्या, प्रतिबिम्बवाद तथा अभेद पर भी व्यासतीर्थ और मधुसूदन में गंभीर विवाद है। मधुसूदन सरस्वती ने इन मतों की स्थापना व्यासतीर्थ की युक्तियों का खण्डन करके ही की है। उनकी यह स्थापना परवर्ती अद्वैत वेदान्तियों तथा द्वैतवादियों के लिए बहुत प्रेरक सिद्ध हुई है। एकजीववाद मधुसूदन सरस्वती एकजीववाद के समर्थक है- ‘स च दृष्टैक एव तन्नानात्वे मानाऽभावात्" एकजीववाद के सम्बन्ध में यह शंका उठती है कि जब “मैं सुखी हूँ”, “मै संसारी हूँ" और "मै सोया' आदि भिन्न-भिन्न अनुभव होते है तो एक जीववाद को फिर 'अद्वैतसिद्धि - पृ० ५३६ 323
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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