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________________ इसी अर्थ में किया गया है- 'छूत क्रीडा में माया के द्वारा ही भाग्य जगाता है।' शंकराचार्य के अनुसार माया सत् भी नहीं है, असत् भी नहीं है क्योंकि जो सत् है वह आत्मा है इसलिये माया सदसद् विलक्षण है इतना ही नहीं, शंकराचार्य ने उसे तत्त्व और अन्यत्व से भी अनिर्वचनीय कहा है। 'अव्यक्ता हि माया तत्त्वान्यत्वनिरुपणस्य अशक्यत्वात् ।' (शारीरक भाष्य १/४/३) परमार्थिक दृष्टि से माया अनिर्वचनीय है परन्तु व्यवहारिक दृष्टि से माया नामरुपात्मक सत् है इस अर्थ में जितने विषय है वे सब मायिक या माया के अन्तर्गत है। उनकी उत्पत्ति स्थिति और लय माया में है। 'माया' शब्द का प्रयोग भगवद्गीता में भी उपलब्ध होता है भगवान कृष्ण ईश्वरभाव में बोलते हुये स्वयं कहते है कि “मै अविनाशी और अजन्मा होने पर भी समस्त भूत-प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ। गीता के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट होता है कि माया दिव्य आध्यात्मिक सत्ता पर अवलम्बित है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है माया के कारण ही ईश्वर अनेक रूप धारण करता है, किन्तु अपने को अलिप्त रखता है। योगवासिष्ठ में भी 'माया' शब्द का प्रयोग किया गया है और माया को प्रकृति कहा गया है वह शिव की स्पन्दनकारी एवं दैवी इच्छा है। पुराणों में भी विश्व को ईश्वर की रहस्यमयी शक्ति का कार्य कहा गया है- उदाहरणार्थ- ब्रम्हपुराण में कहा गया है कि द्वैत की दोषपूर्ण दृष्टि को अविद्या कहते हैं और मनुष्य द्वैत दिखाने वाली अपनी माया से ही अपने को भ्रमित करता है।" 1 अथर्ववेद-४/३७/३ भगवद्गीता ४.६ योगवशिष्ठ - ६/२८५१४ सा राम ..... स्वन्दशक्तिरकृत्रिमा 3 शाकरभाष्य-श्वेताश्वरतर, प्रस्तावना। शांकरभाष्य- श्वेताश्वतर प्रस्तावना। स्वमायया स्वमात्मानं मोहयेत् द्वैतरूपा 267
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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