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________________ शताब्दी तक 'आन्वीक्षिकी' के नाम के स्थान पर दर्शन शब्द प्रयुक्त होने लगा। महाभारत में भी कहा गया है कि' "सोऽप्ययोगः पञ्चरात्रं वेदाः पाशुपतं तथा। ज्ञानान्येतानि राजर्षेः विद्धि नाना मतानि वै।।" रामायण में "आन्वीक्षिकी' को आदर का स्थान न देकर निन्दित ही माना गया है क्योंकि यह मनुष्यों को धर्मशास्त्रों की आज्ञाओं से विमुख करती है (२/१००/३६)। व्यास का दावा है कि उन्होंने आन्वीक्षिकी द्वारा वेद की व्यवस्था की । जीवन और दर्शन का सम्बन्ध यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि भारतीय दर्शन और (हमारे) जीवन में घनिष्ट सम्बध परिलक्षित होता हैं। ये दोनो एक ही लक्ष्य को सामने रखकर एक ही मार्ग पर साथ-साथ चलने वाले दो पथिक है। इन दोनो की सत्ता का मूल एक ही कारण सैद्धान्तिक रूप हमे दर्शन शास्त्रों में मिलता है। किन्तु व्यवहारिक रूप तो हमे अपने जीवन में ही मिलता है और इन दोनों तत्वों के माध्यम से ही परमतत्त्व के पूर्णरूप का अनुभव होता है। दुःख का आत्यान्तिक नाश या जन्म-मरण से सदा के लिये मुक्त होना ही तो सभी का चरम लक्ष्य है। अतएव कोई भी कार्य छोटा या बड़ा इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ही लोग करते है। इस प्रकार हमारे दर्शन में जो भी बातें कही गयी हैं। वे सब एक मात्र इसी चरमलक्ष्य की प्राप्ति के साधन हैं। इनके द्वारा ही हमे उस परमपद का साक्षात्कार होता है। इसलिये इसको हम 'दर्शन' या 'दर्शनशास्त्र' कहते हैं। उदाहरणार्थ- जब से जीव अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार सुख-दुःख का भोग इस संसार में आरम्भ करता है। अर्थात माता के गर्भ में प्रवेश करता है तभी से ही उसे जीव का एक मात्र उद्देश्य होता है कि सुख प्राप्ति हो और दुःख की निवृत्ति हो। 1 महाभारत, शान्तिपर्व, १०/४५/
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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