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________________ 'प्राचीन मित्येव न साधु सर्व नवीन मित्येव न निन्दनीयम्' के अनुसार प्राचीनता और अर्वाचीनता के प्रति उदासीनता मानवोन्नति की अवरोधक हुआ करती है। इसी मान्यता के आनुसार जैन और बौद्ध सहित लोकायतिक (चार्वाक) कणाद, पौराणिक, कारणिक, पाञ्चरात्रिक आदि दस मतों ने जन्म लिया। जिनका वर्णन बाणभट्टकी 'हर्ष चरित' में मिलता है। उस समय सबसे महत्त्वपूर्ण कापालिक मंत्र के तांत्रिक थे। माधवाचार्य की रचना 'शङकर दिग्विजय' में उग्रभैरव कापालिक का वर्णन मिलता है। इस प्रकार सर्वत्र धार्मिक अराजकता उच्छृखलता और अनाचार व्याप्त था। ऐसी विषम और भयावह स्थिति में धार्मिक जगत में किसी ऐसे उत्कट त्यागी, निस्पृह, बीतराग, धुरन्धर विद्वान सर्वगुण सम्पन्न अवतारी पुरुष की महान आवश्यकता थी जो धर्म की विश्रृंखलित कड़ियों को एकाकार करके उसे सुदृढ़ बनाता और धर्म का वास्तविक स्वरूप सबके सम्मुख प्रस्तुत करता। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा भगवद्गीता में कथित वचन 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लार्निभवति भारत्' अर्थात जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं अवतार धारण करता हूँ को चरितार्थ करनें हमारी पावन मातृभूमि भारत वर्ष में विभिन्न काल में तेजस्वी सन्त और महापुरुष अवतरित होते रहे हैं। एक बार पुनः हम इसी वचन को हम दक्षिण भारत में केरल राज्य के 'कालड़ी' नामक ग्राम में आठवीं शताब्दी ईसवी में पूर्ण होता हुआ पाते हैं जब श्री शङ्कर ने सनातनी नम्बूदरी ब्रह्मण दम्पति विशिष्टता और शिवगुरु के घर में जन्म लिया। शङ्कराचार्य ने भारतीय दर्शन के इतिहास को विशेषतः अद्वैतवेदान्त के इतिहास को विशेषतः दो युगो में बांट दिया है। जिन्हें प्राकशङ्कर युग और शङ्करोत्तर युग कहा जाता है। इसमें प्रथम युग में कर्म का महत्त्व था और द्वितीय युग में ज्ञान का महत्त्व था। प्राक शंकर युग में बौद्ध दर्शन तथा वैदिक दर्शन के मध्य 239
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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