SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री ब्रह्मदत्त के मत में ब्रह्म से उत्पन्न हाने वाले जीव का ब्रह्म में लय ही मोक्ष कहा जाता है। यह लय अज्ञान का नाश होने पर होता है इस अज्ञान के नाश होने का उपाय या मोक्ष साधन केवल ज्ञान था केवल कर्म नही होता है, किन्तु दोनों कर्म और ज्ञान होते है। पहले 'तत्वमसि' इत्यादि औपनिषद महाकाब्यों से ब्रह्म का परोक्ष ज्ञान प्राप्त करके 'अहं ब्रह्मास्मि' इस प्रकार की भावना अपने में करके इसे चिरकालपर्यन्त करना चाहिए। इस प्रकार दृढ़तर अभ्यास के द्वारा ब्रह्मसाक्षात्कार रुप ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति होती है। इसलिये ज्ञानाभ्यास कर्म का त्याग नही करना चाहिए। इस कारण 'अहं ब्रह्मास्मि' इस ज्ञान के अभ्यास के साथ वैदिक कर्म करने से ज्ञान और कर्म समुच्चय संगत होता है "देव होकर देवों को प्राप्त करना है' इस श्रुति का भी तात्पर्य ज्ञान और कर्म का समुच्चय ही संगत होता है। ब्रह्मभावना की वृद्धि हो जाने से देवभाव का साक्षात्कार होता है। तब उद्धृत देहपात के अनन्तर उपास्यदेव भाव की प्राप्ति हो जाती है यह ब्रह्मदत्त का मत श्री सुरेश्वराचार्य ने 'नैष्कर्म्य सिद्धि' में उद्वत किया है इस प्रकार उपसंहार में कोई अपने सम्प्रदाय के बल के गर्व से कहते है- जो यह वेदान्त वाक्य 'अहं ब्रह्म' यह विज्ञान उत्पन्न होता है, वही उत्पत्ति मात्र से अज्ञान निरस्त हो जाता है तब दिन-दिन लम्बे समय तक उपासना युक्त रहने वाले की भावना की वृद्धि होने से समस्त अज्ञान नष्ट हो जाता है 'देवोभूत्वा देवानप्योति' ऐसा श्रुति में कहा है। (नै० सि० १/६७) इस प्रकार ब्रह्मस्वरूप के अवबोधक 'तत्वमसि' इत्सादि वक्यों से ब्रह्मस्वरुप का बोध हो जाने के पश्चात् 'आत्मावाऽरे' इत्यादि वाक्यों से ब्रह्म की भावना की जाती है। इस कारण 'तत्वमसि' इत्यादि वाक्य केवल ब्रह्म स्वरूप मात्र का बोधक है। अज्ञान की निवृत्ति तो भावनाजन्य ज्ञान की निवृत्ति से ही होती है। अतएव आत्मा भावना निधेय है। इस प्रकार कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड दोनों साध्य विषयक है न कि सिद्धविषयक । 218
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy