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________________ क्योंकि 'अनुशय' आचरण एवं कर्मानुष्ठान से बनता है। इसलिये उक्त दोनों कथनों में परस्पर विरोध की कल्पना असंगत है। सूत्रकार ने इस प्रसंग पर अपनी कोई आलोचना प्रस्तुत नहीं किया है। जैमिनि के मीमांसा सूत्र में दो स्थलों पर आचार्य कार्णाजिनि का उल्लेख हुआ है।' प्रथम स्थल का प्रसंग है कि रात्रि सत्र में जो फल निर्देश है वह केवल अर्थवाद है, अथवा उसे फलविधिमानना चाहिये। कार्णाजिनि का मत है कि इसे फल निर्देश अर्थवाद समझना चाहिये। जैसे अडभूत कर्मो का फलनिर्देश अर्थवाद रुप माना जाता है। मीमांसाकार जैमिनि ने कार्णाजिनि के मत को पूर्वपक्ष के रूप में रखा है। और इसका सिद्धान्त पक्ष आत्रेय आचार्य के नाम से अगले सूत्र में (४ ।३।१८) में प्रस्तुत किया है। द्वितीय स्थल पर 'सहस्रसम्वत्सरयोग' का प्रसंग है। ५. आचार्य काशकृत्स्न वेदान्त दर्शन के केवल एक सूत्र (१।४।२२) में आचार्य काशकृत्स्न के मत का उल्लेख हुआ है। 'काशकृत्सन' ब्रह्म-सूत्र (१।४।२२) अचार्य काशकृत्स्न का विचार है कि जीवात्मा प्रत्येक दशा में परमात्मा के साथ अवस्थित रहता है। परमात्मा को छोड़कर जीवात्मा का रहना संभव नहीं है। इनके मतानुसार परमेश्वर ही संसार में जीव रुप मे अवस्थित है जीव परमेश्वर का विकार नहीं है, संसार और मोक्ष प्रत्येक अवस्था में जीवात्मा के साथ परमात्मा अवस्थित रहता है । संसार अवस्था में जीवात्मा अज्ञान रहित नहीं होता है इसलिए यह अवस्थान अज्ञान सहित है। प्रलय की स्थिति भी संसार की स्थिति है। वहां भी जीवात्मा की स्थिति वैसी ही है। मोक्ष में अज्ञान नहीं रहता है केवल ब्रह्मानन्द की अनुभूति होती है। यह कहना उचित नहीं है कि प्रलय अथवा मोक्ष में जीवात्मा का ब्रह्म में लय हो जाता 1 क. कतौ फलार्थवादमङ्गवत् कार्णाजनिः । जै०सू० ४।३।१५ ख सकुल्यः स्यादिति कार्णाजनिरेकस्मिन्नसंभवात् ।(जै०से०६/७/३६) 190
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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