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________________ रक्षा करता तो दूसरा कोई उपाय नहीं है। अतः आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए परमपुरुषार्थ करना चाहिये । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः । आत्मात्मना न चेतत्रातस्तदुपायोऽस्ति नेतरः ।। योगवासिष्ठ में परमसत् से सम्बन्धित श्लोकों के विषय में कुछ विद्वानों का कथन है कि योगवासिष्ठ वेदान्त प्रच्छन्न या प्रकट बौद्धमत है, क्योंकि उसने ब्रह्म, शून्य और विज्ञान का अभेद किया है । परन्तु यह योगवासिष्ठ की उक्ति तथा युक्ति का अनर्थ है। उसनें केवल एक समन्वय दर्शन दिया है जिसमें बौद्ध ही नहीं अपितु सांख्य, न्याय, मीमांसा आदि का भी समन्वय है । यद्यपि योगवासिष्ठकार पर बौद्ध मत का प्रभाव तथापि वह प्रच्छन्न बौद्ध नहीं है । वह शुद्ध निर्विशेष ब्रह्मवादी है । जगत योगवसिष्ठ में जगत को केवल कल्पना मात्र कहा जाता है। जगत् के समस्त भौतिक पदार्थ शशश्रृंग के समान असत् है । इसका वाह्य अस्तित्व न होकर द्रष्टा के भीतर भी होता है । जाग्रत और स्वप्नावस्था में कोई अन्तर नहीं है, बल्कि तादात्म्य है, २ जिस प्रकार स्वप्न का अनुभव होता है। उसी प्रकार जगत का भी होता है। जगत के समस्त दृश्य जड़ पदार्थ स्वयं द्रष्टा भी हैं। जीव ही समस्त पदार्थों का अनुभव करता है। क्योंकि संसार के सभी पदार्थ ब्रह्ममय है । जगत और द्रष्टा एक एक दूसरे से भिन्न नहीं नहीं है। क्योंकि नियम है कि एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न वस्तुओं में सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता है सम्पूर्ण न आदि में था न अन्त में रहेगा। अतः वह वर्तमान में भी असत् है । वस्तुतः वह मनोविलासमात्र है- 'मनोदृश्यमिदं जगत'। जगत 1 एन० के० देवराज भा० दर्शन पृ० ४६३ उ० प्र० संस्थान लखनऊ । 2 यथा स्वप्नस्तथा चित्त जगत्सदसदात्मकम् । न सन्नासन्न सजातश्चेतसो जगतो भ्रम ।। योगवासिष्ठ ३६५–५ १६ 179 1
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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