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________________ गीता में ईश्वर को विश्व का रचयिता माना गया है ईश्वर अपनी माया से इस जगत की सृष्टि करता है। 'माया' ईश्वर की शक्ति है। ईश्वर ही इस जगत का पालक तथा संहारक दोनों है। गीता के ६/१४/३५ में कहा गया है कि "सम्पूर्ण जगत् का धाता अर्थात् धारण-पोषण करने वाल मैं ही हूं। सबका नाश करने वाला भी मैं ही हूँ।" गीता और उपनिषदों में ईश्वर सम्बन्धी विचार को लेकर कुछ मतभेद अवश्य हैंक्योंकि जहां उपनिषदों में ब्रह्म के निर्गुण रूप को प्रधानता दी गयी है। वहाँ गीता में सगुण ब्रह्म को श्रेष्ठ ठहराया गया है। ब्रह्म के निर्गुण स्वरूप को भी गीता मानती है। 'सारी विभक्त वस्तुओं में जो अविभक्त होकर वर्तमान है, जिसे न सत् कहा जा सकता है और न ही असत्, जो सूक्ष्म एवं दुर्जेय है, जो ज्योतियों की भी ज्योति है एवं अन्धकार से परे है जो ज्ञाता और ज्ञेय है।' दसवें अध्याय में तथा सातवें और नवें अध्यायों के कुछ स्थलों में भगवान की विभूतियों का वर्णन है। संसार के सभी सत्-असत् पदार्थ भगवान् ही हैं। पृथ्वी में मैं गन्ध हूँ और सूर्य तथा चन्द्रमा में प्रकाश । मैं सब भूतों का जीवन हूँ और तपस्वियों का तप।' (७/६)। गीता के ग्यारहवें अध्याय में विश्वरूप दिखलाकर 'भगवान ने अर्जुन को अपनी विभूतियों और संसार का अपने ऊपर अवलम्बित होने का प्रत्यक्ष अनुभव करा दिया। साथ ही अर्जुन को यह उपदेश भी दिया कि सब कुछ भगवान के ऊपर छोड़कर उन्हीं के उद्देश्य की पूर्ति के लिये कर्म करना चाहिये। इस प्रकार गीता ने अपने तत्व दर्शन के सिद्धान्त में सांख्यों के प्रतिवाद, उपनिषदों के ब्रह्मवाद, और भागवतों के ईश्वरवाद तीनों का समन्वय कर दिया। गीता और योग-विचार ' गीता, १३/१५, १६, १७। 162
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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