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________________ सैव च पुरूषार्थं प्रति विमोचयत्येक रूपेण ।। (सा०का०) इस प्रकार कहा गया है कि इस बन्धन में प्रकृति ही बंधती और मुक्त होती है पुरूष में ये उपचार मात्र से आरोपित होती है क्योंकि पुरूष तो सर्वथा मुक्त है। "तस्मान्नंवध्यतेऽद्धा न... संसरतिवध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः।।' जैसे सेना की जय-पराजय स्वामी (राजा) में आरोपित होती है वैसे ही भोग और अपवर्ग प्रकृति का होते हुये भी पुरूष में उपचारित किये जाते हैं। कैवल्य से तात्पर्य मोक्ष या दुःखत्रय की एकान्तिक व आत्यान्तिक निवृत्ति है यह ऐकान्तिक दुःखनिवृत्ति, प्रकृति-पुरूष विवेक ज्ञान से ही संभव है- "व्यक्ताव्यक्त विज्ञानात् ।" इस प्रकार 'दृष्टा' और 'दृश्य' का संयोग दुःख का कारण है- 'द्रष्टदृश्ययोः संयोगो हेय हेतुः (योगदर्शन १७) और इन दोनों के संयोग का अभाव ही 'अपवर्ग' है। इस प्रकार जब पुरूष को विवेकज्ञान अथवा साक्षात्कार हो जाता है तब पुरूष प्रकृति के बन्धन से मुक्त हो जाता है और प्रकृति को रंगमंच पर नृत्य करती हुयी नर्तकी के रूप में दर्शक की भांति, बैठकर देखता है और प्रकृति भी इस मुक्त पुरूष के लिये सोचती है कि मैं इसके द्वारा देख ली गयी हूँ। और ऐसा सोचकर अपना कार्य सम्पादन बन्द कर देती है- 'रङस्यदर्शियित्वा निवर्ततेनर्तकी यथा नृत्यात् । पुरूष भी प्रकृति को "देखचुका हूँ" ऐसा सोचकर उपेक्षा कर देता है और पुरूष में बुद्धि के सात परिणाम दग्ध बीज हो जाते हैं जिससे उनका कोई फल नहीं होता है-इसप्रकार यह जीवन मुक्त की अवस्था होती है "सम्यग ज्ञानाधिगमाद् धर्मादीनाम कारण प्राप्तौ। तिष्ठति संस्कार वंशाच्चक्रम भ्रमवद्धृतशरीरः ।।" (६७ सांख्य कारिका) प्रारब्ध कर्मों के संस्कार के कारण वह संदेह बना रहता है किन्तु जैसे ही प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाते हैं वह विदेह मुक्त हो जाता है और शरीर नहीं रह जाता है। पुरूष कभी नाश न होने वाले अवश्यसंभावी, ऐकान्तिक व आत्यान्तिक कैवल्य को प्राप्त 103
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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