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________________ यदि कारण में कार्य पहले से विद्यमान रहता हो ऐसी स्थिति में निमित्त कारण की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यदि मिट्टी में घड़ा पूर्व से ही निहित रहता तो कुम्हार को परिश्रम करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। इस प्रकार न्यायदर्शन में तीन प्रकार के कारण माने गये हैं- १-समवायि, २-असमवायि, ३-निमित्त कारण। ईश्वर – न्याय दर्शन ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है किन्तु ‘न्यायसूत्र' में ईश्वर का विशेष विवेचन नहीं है। न्यायभाष्यकार ने ईश्वर को आत्मा का ही एक विशेष रूप माना है। जिस प्रकार जीवात्मा में ज्ञान आदि गुण विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार ईश्वर में भी ये सब गुण विद्यमान रहते हैं। इसलिये जीव और ईश्वर दोनों ही आत्मा है। किन्तु मुख्य अन्तर यह है कि जीवात्मा में ज्ञान आदि गुण जहां अनित्य होते हैं वहां ईश्वर में ये सब गुण नित्य होते हैं। जीवात्मा का जहां बन्धन तथा मोक्ष होता है वहां ईश्वर इस सबसे रहित है। अतएव ईश्वर को 'नित्यमुक्त' कहा गया है। ईश्वर परमात्मा है। न तो यह बुद्ध है और न ही मुक्त है। ईश्वर विश्व का सृष्टा होने के साथ विश्व का संहर्ता भी है। आत्मा ही सम्पूर्ण चेतन जगत का वास्तविक स्वरूप है। आत्मा नित्य और विभु है। परमात्मा केवल एक है वह सर्वाविषयक, नित्यज्ञान, नित्य इच्छा, नित्य प्रयत्न का आश्रय है। वेद उसी की रचना है जिसके द्वारा कर्तव्य-अकर्तव्य की शिक्षा मानव को प्राप्त होती है-महान नैय्यायिक उदयनाचार्य ने अपने ग्रन्थ न्यायकुसुमाञ्जलि में कहा है। स्वर्गापवर्गयोमार्गमामनन्ति मनीषिणः । यदुपास्तिमसावत्र परमात्मा निरूप्यते।। 'अन्यायदर्शन (वात्स्यायन भाष्य) पृष्ठ ३६ आचार्य दुढिराज शास्त्री {चौखम्मा प्रकाशन वाराणसी। - शाब्द माप्तोपदेशु मानमेव चतुर्विधम हरिभद्रसूरि - षडदर्शन समुच्चय-पृष्ठ -१०६- भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । 3 ता० टीका ४११/२१ पृ० ५६५।। ३-इच्छान्द्रेष-प्रयत्न-दुख-सुख ज्ञानान्यात्मानो लिगम् (गौ०सूत्र)। १/१/१० न्याय दर्शनम (वात्स्थानभाष्य)आचार्य दुढिराजशास्त्री पृष्ठ-४४न्या० वातिक४/१/२१,पृष्ठ ४६६ न्या क०, पृ० १४२ 83
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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