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________________ भूधर जैनशतक तू नित चाहत भोग नऐ नर, पूरब पुन्य बिना किस पैहै । कर्म संजोग मिले कहिँ जोगग, है जब रोग न भोग सके है । जो दिन चारकाव्यों तव न्यो कहिं, तो पर दुर्गति में पछते है । यां हित या सलाह यह कि ग, ई कर जाहि नि 1 बाह न है है ॥ १६ ॥ ३५ शव्दार्थ टीका [मित मढीव (पूरब) पह से (किमये हैं) कैसे पाये (संजोग ) मेल (जोग) कारण ( ग ) पकर (व्योंत ) ढब ( पकते है ) पछतावे है ( यार ) सित्र ( सलाह ) मशवरा सम्मती ( गईकर जाह ) जोबस्तु हाथ से याती रही ( निवाहन है है ) साधन होय सरलार्थ टीका हेनर तू सदव नए नए भोग विलास की भावना करेंहैं परन्तु पहले पु एय बिना कैसे भोग भोग सकेगा यद्यपि को संजोग से कहीँ भोग लोग ने का जोग मिलभी ना वे तो रोग पकड़ ने पर फिर नहीं भोग सता यदि फिर भी कहीं प्यार दिन भोग भोग भी लिये तो दुर्गति मैं पड़ कर पकता वे गा इसकारण हेमित्र यही सलाह है कि जो बस्तुह थ से गई उस्कानिबाह अर्थात् साथ नहीं हो सका भावारथ भोग भोगं नां अपने बगका नहीं है को आनन्दको छोड़ तू नहीं निबाह सकेगा भावार्थ तेरा इका साथ नहीं बनेगा '
SR No.010174
Book TitleBhudhar Jain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi
PublisherBhudhardas Kavi
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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