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________________ २२ भूधर जेनशतक था; जात्तलिंगधारीक होऊ इच्छाचारी बलहारी वाहघरौको ॥ १७ ॥ शब्दार्थ टीका (ग्रह) घर (बास ) बसना ( वेडं ) देखीं ( निजरूप ) अपनारूप ( गति) tara ( करी) हाथी ( घडोल) नहीं फिर ने वा ला (सहिहों उठा उ-स-परिखा कष्ट (शेन ) जाडा ( घाम ) गरमी (मेघ भरी) वरणा (सारंग समान ) हिरमोंकी डार (कबध्यों ) किससमय (धान) श्रान कर ( दल ) सेना ( जोर ) जोड़ कर ( सेना ) बल फौज ( एकल बिहा रो) अकेले चलनेवाले (यथाजाति लिंग धारो ) जन्म समय का चिह्न धारने वाला अर्थात् जैसा मनुष्य के पास जन्म कात में मस्त आदिप रिग्रहनथाकेवलनग्नथा (इच्छा चारी) मनोवत गामो बन्ध रहित (ब लिहारो ) सदकै कुरवान वार सरलार्थ टोका ज्ञानी पुरुष ऐसी भावना मनमें धारण करते हैं कि कब चैसा समय हो गा कि में घर के रहने से उदास होकरबनमें रहीं गा और अपने निजख रूपको देखोंगा बा बिचारू गा और मन रूप हाथी की चाल को कब रोकों गा भावार्थ मनस्थिर करु' गा औरकव ऐसा समय होगा के मैं अडोल एक आसन. अचल अंग होकर जाड़े गरमी बर्षाऋतु की परीषह के दुःख सहन करू गा और कबऐसा समय होगा किहिरणोंकीडारमेरे ए क आसन अचल अंगको लकड़ी का टूठ बा बोटा समझकर अपनाशरी
SR No.010174
Book TitleBhudhar Jain Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhudhardas Kavi
PublisherBhudhardas Kavi
Publication Year
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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