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________________ ३६ द्वितीय अध्याय हस्त्यश्वोप्ट्रैगच्छतश्चाश्नतश्च विदाह्यन्नं स विदाहाशनस्य । । कृत्स्नं रक्तं विदहत्याशु तच्च स्त्रस्तं दुष्टं पादयोश्चीयते तु ।। तत्संपृक्तं वायुना दूषितेन तत्प्राबल्यादुच्यते वातरक्तम् । इसमे दो प्रकोपक विदाही अन्नादि तथा रोगात्पादक हस्त्यश्वोष्ट्र यान दोनों हेतु दर्शाये गये है । यहाँ पर उपचार मे वात एव रक्त दोषो का शमन तथा ऐसे यान या ऐसे व्यवसाय जिसमे पैर का लटकाना आवश्यक हो, निषिद्ध है । फलतः यहां पर दोष व्याधि उभय प्रत्यनीक चिकित्सा करनी चाहिये । यहाँ पर शका होती है कि "कारणनाशात्कार्यनाश" ( कारण के नाश से कार्य का नाश होना ) प्रसिद्ध है तो दोष वैषम्य जो रोग का कारण है उसको दूर कर देने से रोग दूर हो जावेगा । अर्थात् दोषो के उपशम होने से अन्य उपचार के बिना ही व्याधि का स्वयमेव शमन हो जावेगा। ठीक है, परन्तु जहाँ पर दोष और व्याधि दोनो के उत्पादक कारण मौजूद है और प्रत्येक औषध द्रव्य को शक्ति सीमित है, एक ही औषधि व्याधि एव दोप दोनो का उन्मूलन नही कर सकती। उदाहरण के लिये श्लैष्मिक तिमिर रोग को ले यहाँ पर श्लेष्महर वमन करा देने से रोग का शमन हो जाना चाहिये, परन्तु होता नही प्रत्युत वमन का निषेध पाया जाता है। "न वामयेत् तैमिरिक न गुल्मिन न चापि पाण्डूदररोगपीडितम्" (चरक) । इस से स्पष्ट है कि औपच द्रव्यो की शक्ति नियत या सीमित है । अस्तु, दोष और रोग उभय प्रत्यनीकचिकित्सा की आवश्यकता पडती है । इसी प्रयोजन से वातज शोथ रोग मे वातनाशक एव शोथनाशक दशमूल कषाय का प्रयोग पाया जाता है। उभय प्रत्यनीक चिकित्सा विधियो मे 'सर्जिकल रोगो' का उदाहरण देना अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है। जैसे श्लीपद, गलगण्ड, आदि व्यधियो मे दोप प्रत्यनीक आभ्यतर प्रयोगो के साथ साथ स्थानिक उपचार लेप, रक्त विस्रावण, दाह कर्म.प्रभृति स्थानिक व्याधि प्रत्यनीक उपचार भी आवश्यक हो जाते है। इसी प्रकार वातरक्त मे रक्तविस्रावण कर्म व्याधि प्रत्यनीक होता है। वाह्य तथा आभ्यतर भेद से भी हेतुओ के दो प्रकार पाये जाते है । रोगोत्पत्ति मे वाह्य हेतुओ का बडा वर्ग तीसटाचार्य के चिकित्साकलिका मे पाया जाता है। इस वर्ग मे आहार, विहार, ऋतु, काल, जीवाणु, आघात, दश, विद्युत्, रासायिनिक क्षोभक द्रव्य तथा विपो का ग्रहण किया जा सकता है। ये सद्यो घातक या दोषप्रकोपण पूर्वक रोगोत्पादन करके कालान्तर मे घातक हो सकते है। आभ्यतर हेतुओ मे दोप दृष्य सयोग माना जाता है । यह प्राकृत एवं वैकृत
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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