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________________ २८ भिपकर्म-सिद्धि तथा लिङ्ग का निर्देश हो सके अथवा निदान का अर्थ बन्धन हो सकता हैअर्थात् जिसके द्वारा हेत्वादि सम्बन्ध रोग मे बाँधा जा सके । मभी अर्थों की मान्यता मधुकोपकार ने दी है-परन्तु वन्धनार्थ मे निदान गन्द के प्रयोग का, जो भट्टार हरिचन्द्र नामक विद्वान् वैद्य का मत है, मधकोपकार श्री विजयरक्षित ने खण्डन किया है । भट्टार हरिचन्द्र का तात्पर्य यह है कि जिसके द्वारा हेतु, पूर्वरूप, उपशय, सम्प्राप्ति से युक्त व्याधियो का निवन्धन हो उसको निदान कहते है । वन्धनार्थक निदान शब्द का प्रयोग अन्यत्र भी पाया जाता है जैसे 'या गौ मुदोहा भवति न ता निदनीत' अर्थात् जो गाय आसानी से दुही जा सके उमको वाँधना नही चाहिये । विजय रिक्षित का कथन है कि यद्यपि निदान गब्द का व्यवहार वन्धनार्थ होता है, परन्तु वह निदान के लनण रूप में नहीं घट सकता, क्योकि हेत्वादि पाँचो का समुदाय रूप निदान व्याधि का ज्ञापक होते हुए भी, फिर वही हेत्वादि का प्रतिपादक नही हो सकता। तात्पर्य यह है कि कोई भी वस्तु अपने लिये ज्ञापक नहीं हो सकती, उसके लिये दूसरे जापक की आवश्यकता रहती है । जैसे, दीपक अपने प्रकाग से सम्पूर्ण वस्तुओ का जापक होता है, परन्तु दीपक का ही जानना आवश्यक हो तो उसके लिये दूसरे ज्ञापक चक्ष आदि इन्द्रियो को आवश्यकता रहती है । इस मे अपने मे क्रिया विरोध होने मे 'स्वात्मनि क्रियाविरोध' दोप, निदान गब्द के वन्धनार्थ प्रयोग होने मे आता है अत यह ठीक नहीं है । बन्धनार्थ ही यदि निदान गब्द का व्यवहार अपेक्षित हो तो वह 'निदानस्थान' नामक अध्याय का वोधक हो सकता है क्योकि वहाँ पर हेत्वादि पाँचो का बन्धन पाया जाता है। परन्तु स्वय निदान निदान का वोधक नही हो सकता। २ हेतुलक्षणनिर्देशान्निदानानि । ( सु० ) ३ निर्दिश्यते व्याधिरनेनेति निदानम् । ( सु०) ४ निश्चित्य दीयते प्रतिपाद्यते व्याधिरनेनेति निदानम् । ( जेज्जट) ५ निदीयते निवध्यते हेत्वादिसम्बन्धो व्याधिरनेनेति निदानम् । ( भट्टार हरिचन्द्र ) ६ व्याधिनिश्चयकरणं निदानम् । ( मधुकोप) ७ तत्र निदान त्वादिकारणम् । (चरक, निदान १ ) ८. सेतिकर्त्तव्यताकः रोगोत्पादकहेतुर्निदानम् । ( मधुकोप )
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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