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________________ चतुर्थ खण्ड : वयालीसवॉ अध्याय । ६५३ ( ३२ सेर ) लेकर क्वाथ करे अष्टमाशावशेप अर्थात् आठ सेर शेष रहने पर छान ले तथा उसमें १ सेर तिल का तेल, १ सेर आंवले का स्वरस, बकरी का दूध १ सेर एवं कल्कार्थ-आँवला, लाक्षा, हरड़, मोथा, लाल चन्दन, गन्धवाला, सरल काष्ठ, देवदार, मजिष्ठा, श्वेत चन्दन, कूठ, इलायची छोटी, तगर, जटामासी, शंलेयक (छैल छरीला ), तेजपात, प्रियगु, अनन्तमूल, वच, शतावर, असगन्ध, सौफ, पुनर्नवा का मिलित कल्क १ पाव भर लेकर, यथाविधि तैल सिद्ध कर लेवे और बोतलो मे भर कर मुखबन्द करके १ मास तक रख दे। उसके बाद इसे अभ्यग एव नस्यादि रूप में प्रयुक्त करें। इस तेल का मुख से सेवन १ तोले की मात्रा मे १ पाव दूध में मिलाकर या नस्य रूप में नासाछिद्रो से ४-६ बूद या अभ्यङ्ग के रूप मे करने से अम्लपित्त मे लाभ होता है। बयालीसवां अध्याय वाजीकरण निरुक्ति :-महाफलवती रसायन ओपधियो के सेवन के अनन्तर उनकी अपेक्षा अल्पफलवान् वाजीकरण योगो की चाह मनुष्य को करनी चाहिये । वाजीकरण शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती है 'वाज शुक्रम् ( वाज का अर्थ है शक्र या वीर्य, सोऽस्यास्तीति वाजी।' वह जिसको है वह हुआ वाजी), अवाजी वाजी क्रियतेऽनेनेति-वाजीकरणम् अर्थात् अवाजी को वाजी जिस क्रिया के द्वारा किया जाता है उस क्रिया को वाजीकरण कहते है। वाजीकरण शब्द को दूसरी व्युत्पत्ति भी है। वाजी कहते है घोडे को, जिस क्रिया से घोडे के समान अप्रतिहत सामर्थ्य होकर युवक पुरुप युवती के पास जाता है उसको वाजीकरण कहा जाता है। वाजीकरण के फलस्वरूप पुरुप स्त्रियो के लिए अतिप्रिय होता है, उसका शरीर पुष्ट होता है क्योकि वह शरीर को बल एव कान्ति विशेप रूप से देता है। वाजीकरण का उपयोग नित्य करना चाहिये । रसायन औषधियो का प्रयोग एक वार किया जाता है, परन्तु, इसका सेवन आत्मवान् पुरुप को नित्य करना होता है। जिस प्रकार शरीर की वृद्धि एवं पुष्टि के लिए आहार की नित्य
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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