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________________ भिपकमै सिद्धि अश्वगंध—बेवल अश्वगंध का चूर्ण ६ माना का गोमूत्र के साथ सेवन । अष्ट-मूत्र के द्वारा उदर का सेंक करने अथवा मुग से पिलाने से उदर रोगो मे लाभ होता है । -- गावाच्यादि - इन्द्रायण ( गवाक्षी की जड ), स्तुहीमूल, दन्तीमूल एवं नीलिनी के पत्ते मम मात्रा में लेकर २ माया की मात्रा मे गोमूत्र के साथ पीन कर लेने में सभी प्रकार के उदर रोगों में लाभ होता है । त्रियोग - १ मैम के दूध में गोमूत्र ( १ पाव दूध में २३ तोला ) मिलाकर पीना २ त्रिफला का चूर्ण ( ३ माया ) गाय के दूध ( १ पाव ) में मिलाकर पीना दुग्धाहार पर रहकर गोमूत्र का सेवन । ५६२ यकृत्लीह प्रतिपेध - यकृत् एव प्लीहा को वृद्धि में यदि मूल रोग का निदान हो जाय जैसे जीर्गा प्रवाहिका, रक्ताल्पता, विषम ज्वर या कालज्वर तो मृल व्याधि की विशिष्ट चिकित्सा करने से स्वयमेव यकृत् अथवा प्लीहा भी ठीक हो जाती है । परन्तु यदि विशिष्ट कारण का पता न लग सके तो कुछ सामान्य सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए चिकित्सा करनी चाहिये। जैसे रहन, स्वेदन, प्लीहा एव यकृत् का मर्दन तथा गिरावेध | प्लीहा - यकृत् के क्षेत्र पर तेल का मर्दन करना, अष्टसूत्रों को गर्म करके उसमे कपटा या रुई भिगोकर सेंक करना उत्तम रहता है | सुश्रुत ने यत् एव हा वृद्धि की चिकित्मा मे शिरावेध तथा दाह कर्म का विधान बतलाया है-इस क्रिया का प्रयोग करके देखना चाहिये । इस पर लेखक का अपना कुछ भी अनुभव नहीं है, परन्तु ग्रंथों में उल्लेख पाया जाता है— बहुत से प्रयोगो के अनन्तर ही इस पर कोई सिद्धान्त दिया जा सकता है । विधान यह है कि रोगी को दही के साथ बन्न खिलाकर उसके बाद के मध्य वाली निरा वा नाम कूपर मधिगत मिरा ( Cabital vem ) का तथा यकृत् रोग में दक्षिण बाह को गिरा का वेव करना चाहिये । इस में सिद्धान्त यह हैलोहा एवं यट्टन् में इस क्रिया मे आकुचन होता है और दुष्ट रक्त निकल जाता है और और रोग शान्त हो जाता है | " १ नेम्वेदादि विधेय लोह रोगिणि । दध्ना भुवनवतो वामबाहुमध्ये मिरा भिषक् । विव्येन्ह विनाशाय यकृन्नाशाय दक्षिणे । प्लीहानं मर्दयेद् गार्ट दुष्टतप्रान्तये ॥ ( मु.) प्लीहान वकून वृद्ध मृत्रस्वेदैरुपाचरेत् | प्लीहजिटर एंवाया पल्वस्त क्रेण सेवितः ॥ ( भं र )
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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