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________________ छत्तीसवाँ अध्याय उदर रोग प्रतिषेध प्रावेशिक - वातोदर, पित्तोदर, कफोदर, सन्निपातोदर, यकृत् - प्लीहोदर, वद्धगुदोदर, नतोदर तथा जलोदर भेद से उदर रोग आठ प्रकार के होते है । उदर रोगो मे उत्सेधयुक्त सम्पूर्ण उदरगुहागत रोगो का समावेश हो जाता है, जिसमें कारण ओदरिक वृद्धि ( Genralsed Abdominal Enlargement ) पाई जाती है । प्राचीन ग्रंथो मे उदररोगो के उत्पादक तीन कारण वतलाये गये है- १. मन्दाग्नि २ मलसंचय ३. पाप कर्म । उदर रोगो की सामान्य सम्प्राप्ति के सम्वन्ध मे यह बतलाया गया है कि संचित हुए दोष स्वेदचाही तथा जलवाही स्रोतसो में अवरोध उत्पन्न करके प्राण अपान एव जठराग्नि को दूपित कर उदररोगो को उत्पन्न करते है । सब प्रकार के उदर रोगो मे आध्मान (पेट का तनाव ), चलने-फिरने में असमर्थता, दुर्बलता, पाचन करने वाली अग्नि की मदता, शरीर मे सूजन, अगो मे शिथिलता, वायु एवं मल का अवरोध, दाह एवं तद्रा ये सामान्य लक्षण पाये जाते है ।" चरक सहिता मे इन प्रत्येक उदर रोगो का विस्तार से वर्णन पाया जाता है । वातोदर मे मलका अवरोध, आध्मान, शूल आदि के साथ "आध्मातदृति वच्छन्दमाहूतं प्रकरोति च " अर्थात् आध्मानयुक्त उदर मे स्पर्शन अथवा अगुलिताडन करने से, भरी हुई मशक के ठोकने पर जैमा शब्द मिलता है वैसे ही शब्द पाया ( Tympanitic node ) जाता है, यह विशिष्ट लक्षण है जो आधुनिक दृष्टि से (Tympanitis) के वर्णन से सादृश्य रखता है । इसी प्रकार पित्तोदर का वर्णन अर्वाचीन शास्त्रो मे वर्णित उदरावृतिशोफ ( Peritonitis ) के साथ साम्य रखता है । कफोदर मे आमाजीर्ण कफज ग्रहणी आदि आमप्राय विकारो के साथ या उनके बाद होता है, उदर मे शोथ होता है । अर्वाचीन दृष्टि से इसका सामन्जस्य ( Amoebiasis ) या तत्सदृश विकारो से कर सकते है । कालान्तर मे ये १ पृथग्दो समस्तैश्च प्लीहबद्धक्षतोदकं । सभवन्त्युदराएयष्टी तेषा लिङ्ग पृथक् शृणु ॥ रोगा. सर्वेऽपि मन्देऽग्नौ सुतरामुदराणि च । अजीर्णान्मलिनैश्चान्नंर्जायन्ते मलसचयात् ॥ आध्मान गमनेऽशक्तिर्देर्विल्य दुर्बलाग्नित। । शोथ सदनमङ्गाना सगो वातपुरीपयो || दाहस्तन्द्रा च सर्वेषु जठरेपु भवन्ति हि ॥
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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