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________________ चतुर्थ खण्ड : वाइसवाँ अध्याय ४२५ पटती। इनमें भी विविध व्याधियो मे प्राय प्रेतावेश का निदान और तदनुकूल उपचारो की व्यवस्था देखी जाती है। आवेग का एक अर्थ आग्रह या हठ भी है। इस प्रकार का आवेशयुक्त रोगी कई भाग्रहो से युक्त होकर सभ्य चिकित्सको के समीप भी आ सकता है। मान लें कोई रोगी चिकित्सक के समीप आकर अपने रोगो का कारण प्रेतबाधा बतलाता है। और उसके प्रतिकार रूप मे किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए किसी विशेप प्रकार के पूजन का आग्रह करता है । अव चिकित्सक उसका अनुमोदन करेगा या विरोध । यदि अनुमोदन करता है तो वह आशिक रूप मे भूत-विद्या नामक कला का समर्थन करता है। यदि पूर्णतया विरोध करता है तो उसकी यशोहानि की सभावना रहती है। रोगो के मानसिक उद्वेगो के शमन के लिये उसके मन को प्रौढ करने के लिये सफल चिकित्सक प्राय भूत-विद्यान्तर्गत कथित उपचार, साधनो या दैवव्यपाश्रय उपायो को अपनाती है। रोगी के मानसिक शान्ति के लिये कभी अनूकूल या प्रतिकूल उपचारो का सहारा लेना परमावश्यक हो जाता है। बस इतने में ही भूतविद्या की सम्पूर्ण कला निहित है और इन साधनो का आश्रय लेते हुए उपचार करने में ही भूतविद्या नामक तंत्र की सार्थकता है। तात्रिक व्याख्या-तत्र शास्त्र में ऐसा माना जाता है कि देव-ऋपि-यक्षगधर्व-प्रेत आदि की नाडियां सुपुम्ना के समीप में पाई जाती है। योगी लोग अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहे इनमे किसी को भी जागृत या सुप्त कर सकते है। दूसरे के शरीर के इन नाडीतत्रो को भी जगा सकते है। यदि किसी आगन्तुक कारण से ये नाडियां उन्मुख हो जाय तो विविध प्रकार के प्रेत-गन्धर्व आदि के आवेश के लक्षण सामान्य व्यक्ति मे भी होने लगते हैं, जिसे भूत-वाधा के नाम से अभिहित किया जाता है । इसी विषय का वर्णन इस भूत-विद्या नामक अग में किया जाता है। भूत विद्या-नाम देवासुरगंधर्वयक्षरक्षःपितृपिशाचनागग्रहाद्युपसृष्टचेतसा शान्तिकर्मवलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम् । ( सु सू. १) देवर्पिगंधर्वपिशाचयक्षरक्षःपितृणामभिधर्पणानि आगन्तुहेतुनियमव्रतादिमिथ्याकृतं कमे च पूर्वदेहे ॥ (च चि ) आयुर्वेद के अष्टाङ्गो में एक अन्यतम अग भूतविद्या है। आयुर्वेद के इस अग का प्रयोजन देव ( देवता), असुर ( दैत्य ), गधर्व ( देवगायक), यक्ष (कुवेर आदि), राक्षस ( ब्रह्मराक्षस ), पितर (श्राद्ध मे दिया गया भोजन
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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