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________________ ४१४ भिपकर्म-सिद्धि भलो प्रकार वद कर कपडमिट्टी करके एक मास तक सुरक्षित स्थान पर रख दे। महीने भर के वाद खोलकर छानकर बोतलो में भर कर रख ले। मात्रा २१ तोला। भोजन के बाद दोनो वक्त । वरांवर पानी मिलाकर । यह अश्वागधारिष्ट भ्रम, मद, मज़, अपस्मार, गोप और उन्माद में लाभप्रद और हृद्य होता है। पथ्यापथ्य-इन रोगो में दूध, घी, मिश्री, नारिकेल, वेदाना, चावल, मूग, पेग, पटोल और रोहू मछली प्राय. देना चाहिये। अपथ्यो में पान, पत्र शाकगाक, दधि, वेगावरोध और स्वेदन, धूप का मेवन अनुकूल नहीं पड़ता है। बीसवाँ अध्याय मदात्यय प्रतिपेध , जो व्यक्ति विधिपूर्वक, मात्रानुसार, उचित समय मे ऋतु एवं बल के अनुसार प्रसन्नतापूर्वक हितकारक खाद्यो के साथ (स्निग्ध अन्न और मास आदि का सेवन करके ) मद्यपान करता है उसके लिए मद्य अमृत के तुल्य होता है। इस प्रकार के मय-सेवन से उसकी आयु, बल और सौन्दर्य की वृद्धि होती है । इसके विपरीत क्रोध, भय, पान, भूत्र तथा गोक की अवस्था में व्यायाम, भार तथा यात्रा की थकावट में, भाजन विना किये खाली पेट पर, वेगो को रोक कर; गर्मी से मंतप्त रहने पर मद्य जो पीता है उसको मद्योत्थ नाना प्रकार की यकृत, हृदय, मस्तिष्क तथा वृक्कसंबंधी विविध प्रकार के रोग हो जाते है। इन रोगो को मदात्यय ( Alcoholism) कहते है। मदात्यय दो प्रकार का हो सकता है। तीत्र ( Acute ) तथा जीर्ण ( Chronic)। तीन मदात्यय-मद्य पोने का तत्काल प्रभाव होता है, उसका नगा-मद कहलाता है, यह कई अवस्थाओ (Stages ) का हो सकता है जो, प्रथम मद, द्वितीय मद, तृतीय मद तथा चतुर्य मद के नाम से माधवनिदान में वर्णित है । मद्य का यधिक मात्रा में या अयुक्तियुक्त मात्रा में सेवन करने से तत्काल परिमाण के अनुसार कई रोग (Due to immediate after effects) हो जाते है, जैसे-पानात्यय, परम मद, पानाजीर्ण, पानवित्रभ आदि हो जाते है। १ विधिना मात्रया काले हितैरन्नयथावलम् । प्रह्टो यः पिवेन्मद्य तस्य न्यादमृतोपमम् ॥ ये विपस्य गुगा प्रोक्तास्तेऽपि मद्ये प्रतिष्ठिना । तेन मिथ्योपयुक्तेन भवत्युग्रो मदात्यय ॥ ( मा० नि० )
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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