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________________ ४१० भिपकर्म-सिद्धि ( Peripheral )-दूसरे प्रकार में कुछ अंगो मे केशिकावो का विस्फार हो जाता है । जिस से रक्त का अधिक भाग प्रान्तस्थ या दूरस्थ भागो में चला जाता है । शरीर में रक्त की कमी होने (पाण्टु रोग)से, हृदय में स्वतः रक्त की कमी हो जाती है-जिस से मस्तिष्क को पूर्ण रक्त नही पहुँचता फलत मूर्छा उत्पन्न होती है। इन कारणो के अतिरिक्त मूर्छा या सन्यास की उत्पत्ति मे-निम्नलिखित हेतु भी भाग लेते है। जैसे १. मस्तिष्क का तीन आघात २ उच्च रक्तनिपीड या विप सेवन से मस्तिष्क के किसी बडी धमनी का फट जाना ३ अति तीव्र संताप ( ज्वर, लू या अग्निसम्पर्क से ) ४. मादक द्रव्यो का सेवन-अफीम, भांग, धतूर, मद्य आदि का ५ हीन मनोवल अपतत्रक और अपस्मार आदि ६ अहिताहारविहारजन्य अम्लोत्कर्प (Acidosis), क्षारोत्कर्ष ( Alkalosis) अथवा मूत्रविपमयता ( Uraemia), मद-मूछादि का परस्पर में भेद-१ मूर्छा को उत्सत्ति मे पित्त और तम दोप की प्रधानता, भ्रम में रजोदोप, पित्त-वायु दोप की अधिकता, तमो गुण एव वात और कफ की विशेषता तन्द्रा में, श्लेष्म और तमो गुण की बहुलता निद्रा में पाई जाती है । २ दूसरा भेद यह है कि मद और मूर्छा में दोपा के वेग (दौरे) के गान्त होने पर विना सोपवि-सेवन के ही रोगी जागृत हो जाता है, परन्तु मन्याम में जहां पर दोपो की अधिक प्रबलता और तम का अतिरेक पाया जाता है, वहुन कठिनाई से चिकित्सा होती है और विना औपधि-सेवन के अच्छा नहीं होता है । अग्रेजी पर्याय के रूप मे मद को ( Faintness ), मूर्छा को (Syncope),सन्यास को(Coma)कहते है। तद्रा तथा अनिद्रा को(Drowsy Feehng of Insomnia. ) नाम से कहा जाता है। मूर्छा के छ प्रकार ग्रथकारो ने बतलाया है-दातिक, पंत्तिक, श्लैष्मिक, रक्तज, मद्योत्थ तथा विपजन्य । इनमें कारणनुरूप चिकित्सा करनी चाहिये। अधिकतर पित्त दोप की विशेपता मूर्छा रोग में पाई जाती है ।' __ मृा मे क्रियाक्रम-सामान्य-मूच्छी रोग में प्राय पित्त की बहुलता पाई जाती है, अस्तु, शीतल उपचार सामान्यतया लाभप्रद रहता है । माथे पर ठडे पानी का जोर से छोटा देना; माथे पर गीतल जल की धारा छोडना, तालाब या १. मूर्छा पित्ततम प्राया रज पित्तानिलाद् भ्रम । तमोवातकफात्तन्द्रा निद्रा श्लेष्मतमोमवा ॥ ( मा नि ) वातादिमि शोणितेन मद्य न च विपेण च । पट्स्वप्येतासु पित्त तु प्रभुत्वेनावतिष्ठते । ( मु. ३ ४६ )
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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