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________________ चतुर्थे खण्ड : सोलहवा अध्याय ३६३ उपसंहार-सामान्यतया स्वरभेद मे किसी विशेष चिकित्सा की आवश्यकता नही पडतो है, प्रतिश्याय, कास आदि की चिकित्सा और कवल धारण, स्वर या को बाराम देने से ही स्वत एक सप्ताह के भीतर ठीक हो जाता है। कभी स्वरभेद अधिक दिनो तक चलने लगता है । उस अवस्था मे उसके विशेष उपचार की आवश्यकता पड़ती है। ऊपर लिखे उपक्रमो के अनुसार चिकित्सा करते हुए लाभ होता है। सोलहवाँ अध्याय अरोचक प्रतिपेध प्रावेशिक-जिस रोग मे अरुचि ( खाने में रुचि या इच्छा का बिल्कुल न होना) प्रधान रूप से पाया जाता है उसे अरोचक कहते है। अरोचक (Anorexia) शारीरिक और मानसिक कारणो के भेद से दो प्रकार का हो सकता है। शारीरिक कारणो में आमाशयगत विकार जैसे आमाशयकला शोथ, कैन्सर, अनम्लता तथा रक्ताल्पता (Gasteritis, cancer, hypochlorhydria & Anaemia) अरुचि की उत्पत्ति मे भाग लेते है । मानसिक कारणों में शोक, भय, लोभ, क्रोध, मनोविघात ( मन का टूटना ) आदि कारण भाग लेते है। इस अवस्था में (anorexia nervosa) हर प्रकार के भोजन से रोगी को घृणा हो जाती है, थोडा भी खा लेने पर पेट फूला रहता है । पोषण के अभाव मे रोगी दुर्बल होता चलता है। प्राचीन ग्रंथकारो ने पांच प्रकार के अरोचक का वर्णन किया है-१ वात २ पित्त ३ कफ ४ सन्निपात दोष से (शारीरिक ) तथा ५ मनोविघात ( क्रोध, शोक लोभ प्रभृति मानसिक उद्वेगो से ) के कारण होने 'वाले अरोचक ।' अरोचक में क्रियाक्रम वातजन्य अरोचक मे वस्ति कर्म, पित्तजन्य अरोचक मे विरेचन कर्म, कफ जन्य अरोचक में वमन कर्म कराना चाहिये तथा मनोविघातजन्य अरोचक मे हृद्य १ वातादिभि. शोकभयातिलोभक्रोधर्मनोनाशनरूपगन्ध । अरोचका स्यु ॥ हृच्छूलपीडनयुत पवनेन पित्तात्तृड्दाहचोपबहुल सकफप्रसेकम् । श्लेष्म रम वहुरुज बहुभिश्च विद्याद् वैगुण्यमोहजडताभिरथापरञ्च ॥ (च चि २६ )
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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