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________________ चतुर्थ खण्ड : पन्द्रहवाँ अध्याय ३६१ श्लैष्मिक स्वरभेड़ में-पिप्पली; पिप्पलोमूल, मरिच और शुठी का सम प्रमाण में बनाया चूर्ण २ माशे को मात्रा मे गोमूत्र के साथ लेना हितकर होता है। त्रिदोपज स्वरभेद मे--अजमोदा, हरिद्रा, मामलकी, चित्रक, यवक्षार का समप्रमाण मे बनाया चूर्ण ३ माशे, मधु ६ मागे, घृत १ तोले के साथ । मिलाकर सेवन । क्षयज और मेदोज स्वरभेद मे-क्षयरोग और मेदो रोग ( स्थौल्य रोगाधिकार ) के अनुसार चिकित्सा करनी चाहिए। कवल-धारण-(Gargles )--स्वरभेद मे कवल-ग्रहण बडा उत्तम उपचार है। कवल के द्वारा स्वरयन, गला, तालु, जिहा, दन्तमूल आदि मुखगतरगत अवयवो मे चिपका हुआ कफ निकल जाता है-कफ के निकल जाने से स्वर गुद्ध हो जाता है । अस्तु, बहुत प्रकार के कवलो का प्रयोग शास्त्र में पाया जाता है। वातिक स्वरभेद मे कटु तेल और लवण मिलाकर, पंत्तिक मे घृत और मधु मिलाफर और कफज स्वरभेद मे कटुद्रव्य एव मधु और क्षार मिलाकर कवल धारण करना उत्तम रहता है । भेपज--सामान्यतया कवल के लिए गर्म जल मे नमक डालकर कुल्ली करना, या गर्म जल मे शुद्ध फिटकरी का चूर्ण डाल कर कुल्लो करना, अथवा त्रिफला का काढा बना कर उसमे सरसो का तेल छोड कुल्ली करना अथवा क्षीरी वृक्षके छालो का क्वाय बनाकर कवल धारण उत्तम रहता है। __ रोगी को घृत, रवडो, मलाई प्रमति स्निग्ध आहार या मासरम के साथ अन्न देना चाहिए और पीने के लिए गर्म जल देना चाहिए। गर्म दूध का पोना भी लाभप्रद रहता है। यदि कफ दोष को अधिकता प्रतीत हो तो दूध मे थोडा सोठ या पिप्पली का चूर्ण छोडकर उबाल देना चाहिए। १ मरिच चूर्ण का १ पैत्तिके तु विरेक. स्यात् पयश्च मधुरै श्रुतम् । पिप्पली पिप्पलीमूल मरिच विश्वभेषजम् । पिवेन्मूत्रेण मतिमान् कफजे स्वरसक्षये ।। २ गले तालुनि जिह्वाया दन्तमूलेपु चाश्रित । तेन निष्क्रमते श्लेष्मा स्वरश्चाशु प्रमीदति ।। ३ वाते सलवण तैल पित्ते सपि. समाक्षिकम् । कफे सक्षारकटुक क्षौद्रं कवलमिष्यते ॥ -
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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