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________________ चतुर्थ खण्ड : वारहवाँ अध्याय ३४५ होता है । अस्तु इस रोग मे शुक्र-क्षय या वीर्य क्षय को बचाना अर्थात् शुक्र या वीर्य वर्धक औषधियो का प्रयोग उत्तम रहता है । ४ यह रोग स्नेहसंक्षय से "तत स्नेहपरिक्षयात्" से होता है अस्तु चिकित्सा मे अत्यधिक मात्रा मे दूध, घी, मक्खन, तैल, वसा, मज्जा, मासरस, यकृत् तैल ( विटामीन ए डी ) तथा पौष्टिक आहार की आवश्यकता पडती है । इसके अभाव मे रोग का अच्छा होना कठिन रहता है । सारक्षय भी माना जाता है-सार से शुक्र और ओजक्षय किया जावेगा, इस रोग मे पाया जाता है । स्नेह शब्द से देह का । जिसका वर्णन आगे ५ यह रोग असाध्य नही है - साध्य या कृच्छ्र साध्य है प्रारंभ से ही चिकित्सा की जाय तो साध्य होता है, परन्तु विलम्व से चिकित्सा करने पर कृच्छ्र साध्य या असाध्य हो जाता है । दूसरी बात यह है कि इस रोग में पुनरावर्त्तन की प्रवृत्ति पाई जाती है अर्थात् एक वार हो जाने पर पुन पुन उसके होने की संभावना रहती है । महाराज चद्रमा को यह रोग हुआ, देवचिकित्सक अश्विनी कुमागे ने इसकी चिकित्सा की, रोग अच्छा हो गया, परन्तु पुन सक्षय प्रारंभ हुआ । अस्तु चद्रमा शुक्ल पक्ष मे पूर्ण चिकित्सा - विश्राम-पथ्यादि के ऊपर ( Senetorium Treatment ) के ऊपर रहने पर अच्छा हो जाते हैं और चे पन्द्रह दिन मे पूर्ण हो जाते हैं - परन्तु चिकित्सा आदि की निगरानी के छूट जाने पर उनमें कृष्ण पक्ष मे पुनः सक्षय प्रारंभ हो जाता है और कृष्ण पक्ष की अमावस्या को वे पूर्णतया क्षीण हो जाते है । पुन उनकी चिकित्सा या पथ्यादि की आवश्यकता पडती है— अश्विनीकुमार लोग पुन उनकी चिकित्सा करते हैं पुन उनकी एक-एक कलावो का सबन्ध शुरू होता है और वे बढ कर एक पक्ष में स्वस्थ हो कर पोशश कला पूर्ण चंद्र होते है । इसी प्रकार क्षयरोग मे भी पथ्यापथ्य का परिणाम पाया जाता है और रोग का बार-बार होना या पुनरावर्त्तन पाया जाता है । चन्द्रमा की वृद्धि एव क्षय का प्रभाव सभवत. इस रोग मे पाया भी जाता है । ५. इस रोग मे चन्द्रका प्रतीक सोम से भी है । सोम से सौम्य गुण अर्थात् आप्यायन धातुवो का पोपण अभिलक्षित होता है । जगत् में दो प्रकार के अग्नि तथा सोम गुण के तत्त्व पाये जाते हैं । कही पर चिकित्सा मे आग्नेय तत्त्वो की आवश्यकता होती है । कई बार इसके विपरीत सोम तत्त्व की । यहाँ पर क्षय रोग के प्रतिपेध मे सोम तत्त्व का ही व्यवहार हितकर रहता है । धातुओ का शोष इस रोग मे पाया जाता है । आप्यायन इस के लिए जरूरी होता है अस्तु सोमगुण वाली औषधियो का शीतवीर्य एव धातुवर्धक पथ्य का उपयोग उत्तम रहता है ।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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