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________________ कारणो से ब्लेयाज ऋमियाँ भी प्रति लक्षण या चि ३०८ भिपकर्म-सिद्धि चुरक (चू शब्द करनेवाले या चुरनेवाले), दर्भपुष्पाः (दर्भ के आकार वाली), सौगविका (विम या कमलनाल के समान गंधवाली), महागुदा (वहुत वडे आकार को गुदा मे निकले वाली कृमियाँ (जैसे Tape worm या स्फीत कृमि)। इन कृमियो के कारण ज्वर, मूर्छा, जृम्भा, चवथु (छोको का माना), आनाह (पेट का फूलना), बङ्गमर्द (मग मे पीडा), हृल्लास (मिचली आना), आस्यत्रवण ( मुंह में पानी भरना या लार का अधिक गिरना), अरोचक ( अन्न में जरुचि ), अविपाक (अन्न का पाक न होना), छदि ( वमन ), गरीर की कृगता और त्वचा की पत्पता (हलता या कंगता) प्रभति ल्क्षण या चिह्न पाये जाते है । पुरीपज-पुरोपज कृमियाँ भी प्राय उन्ही कारणो मे उत्पन्न होती है, जिन कारणो से ब्लेष्मज कृमियाँ। ये अधिकतर पक्वागय (क्षुद्रान्त्र, वृहदत्र तथा मलागय) मे पाई जाती है । और वही पर बढती है और वढवर प्राय अवोमार्ग से निकलती है । इनके क्वचित् आमागयाभिमुख होने पर रोगी के नि श्वास तथा उद्गार से पुरीपगधी बदबू आती है । ये कृमियाँ अधिकतर श्वेत, ऊन के वरावर की दीर्घता की होती है। कुछ स्थूल और गोल घेरे की भी हो सकती है। क्वचित् व्याव, नील या हरित वर्ण की भी हो मकती है। इनके नाम विगेप प्रकार की गति करने वाली ककेरुक एवं मकेरुक, चाटने वाली लेलिह, गल पैदा करने वाली सगलक तथा मद्योत्थ सौमुराद । इनके प्रभाव से पुरीपभेद, कार्य, पारुष्प, लोमहर्प, गुदा में कण्डु प्रभृति लक्षण प्रधानत इन कृमियों में युक्त व्यक्तियो मे मिलते हैं। इनके परिणाम से गुदनिष्क्रमण ( गुदभ्रंश) पाया जाता है। आचाय मुथुतने कृमिरोगो के उत्पादक कारणो का वहत सारगभित सक्षिप्त वर्णन दिया है। उन्होने लिखा है-उडद, अम्ल और लवण, गुड मोर शाका (पत्र गाको) के सेवन से परीपज कृमियाँ, मास, मत्स्य, गुड और तीर के अधिक सेवन मे ग्लेप्मज कृमियाँ उत्पन्न होती है। आमाशयात्र कृमि ( Intestinal Parsites ) इस प्रकार चरक के मत से चार प्रकार की कृमियो का मास्यान समाप्त हुआ। यव जरा व्यावहारिक दृष्टि से भेद किया जाय तो कृमियो को दो वर्गों में वॉट मरते हैं। १ बाह्य २ नाभ्यंतर। वाह्य कृमियां वे है जो वाह्य त्वचा पर, कग, नाव, रोग, श्मयु के सन्निधान मे या वस्त्र आदि मे पाई जाती हैं। यह चरकोरत मलज कृमियो का वर्ग है। दूसरा वर्ग आभ्यतर मात्रगत कृमियो का है । वे आमानयान्त्र प्रदेश में पाई जाती है और वहीं रहकर वृद्धि करती तथा विविध लक्षणो को पैदा करती है। उपर्युक्त पुरीप और कफज कृमियो का
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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