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________________ २८० भिपक्कम-सिद्धि में स्थित होते हैं उनके मस्से ( अकुर ) दृश्य होते हैं नीर उनमे वेदना अधिक होती है (वादी बवासीर)। त्रावी मर्श प्राय. गदा के मध्य या अन्तः वलियो में पैदा होते हैं, उनके अंकुर (मस्से) दिखलाई नही पड़ते ( अदृश्य होते है )इनमें वेदना अल्प या नहीं रहती है, रक्तन्नाव ही एक प्रमुख लक्षण पाया जाता है। शुष्क में वायु और श्लेप्मा दोपो की प्रबलता होती है और नावी अर्गों में रक्त और पित्तदोपो की प्रबलता पाई जाती है। अस्तु दृश्य गुष्कार्गों में तीक्ष्ण द्रव्यो मे निर्मित प्रलेपादि, अभ्यग, स्वेद, सेक, अवगाहन, वूमन, उपनाह, गुदत्ति नया रक्तावसेचन प्रभृति स्थानिक उपचार, तीण पाचन द्रव्यो के बंत. प्रयोग में उपचार करना चाहिो । अदृच वावी सों में रक्तपित्त ( अधोग ) मग मृदु एवं पित्तनामक मान्यंतर प्रयोग से उपचार करना चाहिये।' इममे मदु वमन और रेचन कर्म लाभप्रद रहता है।. कोष्ठद्धि का धान रखना मभी प्रकार के बर्गा की चिकित्सा मे प्रधान लक्ष्य होना चाहिये। दोपभेद से विचार करें तो बातिक में स्नेहन-स्वेदन, पंत्तिक में रेचनादि, ब्लैष्मिक में वमनावि, मिय दोगो से उत्पन्न में मिश्रित तथा पित्तसदन ही क्रिया रक्तज मनों में प्रकीतित है। ___रस्तान में रक्त-पित्तशामक उपचार करे। अर्ग में निकलने वाले रक्त को प्रारम में उपेक्षा करनी चाहिये और उसको निकलने देना चाहिये-क्योकि प्रारम में जो दूपित रक्त निकलता है-उसके रोकने में बहुत तरह के कामलादि उपद्रव होने लगते है-अस्तु प्रारंभ में रक्त के रोकने के लिये स्थानिक या मार्वदेहिक रक्तस्तंभक उपचार नहीं करना चाहिये। परन्तु दुष्ट रक्त के निकल जाने पर रक्त का मग्रहण करना चाहिये । अथवा यदि रक्तस्राव तीव्र हो तो आत्यधिक अवस्था समझ कर उसका मंग्रहण प्रारंभ में भी किया जा सकता है । __ रक्तार्ग की चिकित्मा में जाठराग्नि को उहीप्त करने के लिये, रक्त के सत्रण (स्लमन) के लिये तथा दोपो के लिये तिक्त रसात्मक द्रव्यो का उपयोग करना चाहिये। रक्त के अधिक नु त हो जाने से वायु की वृद्रि अधिक हो जाती है ऐमी स्थिति स्नेहसाध्य रहती है अस्तु-पिलाने, मालिग तथा अनुवासन के लिये स्नेह का प्रयोग करना चाहिये । पित्तोल्वण रक्तन्नाव में, १ गुप्कार्गमा प्रलेपादिक्रिया तीक्ष्णा विधीयते । त्राविणा रक्तमालोक्य क्रिया कार्यात्रवृत्तिकी ॥ स्नेहा. स्वेदादयो वाते पित्ते स्यू रेचनादयः । कफे वान्त्यादयोऽर्श मु मित्र मिया. प्रकीर्तिताः ॥ पित्तवद् रक्तजे कार्य. प्रतिकारोऽसि ध्रुवम् । (च.)
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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