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________________ चतुर्थ खण्ड : सप्तम अध्याय २७५ पर्पटी सेवन कराने की शास्त्रीय विधि का ऊपर में उल्लेख हो चुका है। जिसमे १ रत्ती से मात्रा का आरभ करके प्रतिदिन एक ही रत्ती बढाते हुए कुल दन रत्ती तक ले जाते है पुन कुछ दिनो तक इस मात्रा को चालू रख कर क्रमश एक एक रत्ती धटाते हुए एक रत्ती पर लाकर पर्पटी का सेवन बंद कर देते हैं । पश्चात् कुछ चूर्ण, गुटिका, मोदक, आसवारिष्ट का प्रयोग करते हुए रोगी को प्रकृतस्थ कर लिया जाता है। स्वर्गीय वैद्य यादव जी विक्रमजी आचार्य इसी क्रम के पक्षपाती थे। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी के आयुर्वेदानुसधान विभाग के सचालक प० राजेश्वर दत्त जी शास्त्री का क्रम किंचित् इससे परिवर्तित है। यही क्रम हम लोगो को भी मान्य है। इसमे पर्पटी सेवन के एक दिन पूर्व रोगी को कृष्ण वीज चूर्ण ६ माशे को मात्रा मे कोष्ण दूध के साथ खिलाकर सचित मल को निकाल देना चाहिये। तत्पश्चात् पर्पटी एक एक रत्ती की दो मात्रा बनाकर भने जीरा का चूर्ण ४ रत्तो से १ मागा और मधु ३ से ६ माशे तक मिलाकर प्रात -सायम् देना चाहिये । इस प्रकार दो दिनो तक देकर तीसरे दिन एक रत्ती और वढाकर ३ रत्ती को तीन मात्रा मे वाँटकर प्रात , मध्याह्न और सायं देना चाहिये। यह क्रम भी दो दिनो तक चले । इस प्रकार हर तीसरे दिन एक एक रत्ती को मात्रा बढाता चले और पर्पटी की मात्रा अधिक होने पर चार वार, पांच वार या छ वार मे समय का विभाग करके दिन मे देवे। जब पर्पटी बारह रत्ती तक पहुँच जावे तब वढाना वद कर देवे। यदि इस मात्रा के पहुँचने पर भी मल वध न रहा हो, दस्त पतले हो हो रहे हो तो यही मात्रा एक सप्ताह तक स्थिर रखे । इसके बाद एक एक रत्ती प्रतिदिन घटाता चले जब तक कि पर्पटी प्रारभिक मात्रा ( २ रत्ती ) तक न पहुँच जावे । इस आरोहावरोह क्रम मे रोगी को कोष्ठबद्वता हो तो हरीतकी चूर्ण ६ माशे देकर कोष्ठशुद्धि कर ले। ___ कई वार रोग के हल्का होने पर वारह रत्ती तक पहुचने के पूर्व ही छ या आठ या दस रत्ती तक पहुँचते ही मल बँध जाता है, भूक वढ जाती है, रोगी अपने को स्वस्थ अनुभव करने लगता है तो उसी मात्रा पर पर्पटी को रोक देना चाहिये । चार, पांच दिनो तक उसी मात्रा पर स्थिर रखकर आगे न बढावे और ह्रासन या घटाने का क्रम चालू कर देना चाहिये । और रोगी को प्रारभिक मात्रा पर ले आना चाहिये। इस वर्धमान तथा ह्रासवान पर्पटी की प्रयोगविधि को पर्पटी कल्प कहा जाता है। पर्पटी की मात्रावृद्धि के साथ साथ, रोगी क्षुधा और अग्निवल का विचार करते हुए एक एक पाव दूध या उतने ही का बना तक भी वढाता चले। दूध या
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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