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________________ १४८ भिषकर्म-सिद्धि स्नेहवस्ति-अनुवासन वस्ति तथा मात्रावस्ति : स्निग्ध वस्ति के तीन भेद है। वास्तव में माया भेद मे ही ये तीन भेद होते है। श्री गयी नामक आचार्य ने स्पष्टतया कहा है कि जिन वम्नि में ६ पर ( २४ तोले ) स्नेह का गुदा मार्गसे प्रवेग कराया जाय वह स्नेह वस्मि कहलाती है। यदि उसकी मामा ३ पल (१२ तोले) की कर दी जाय तो उसे तो अनुवामन वस्ति कहते है और यदि प्रवेश्य द्रव्य की माता कुछ कम यर्थात् १।। पल (६ तोले ) भी कर दी जाय तो उसको मात्रावस्ति कहते है। पिच्छा वस्ति:-कई प्रकार की आवम्यिक वस्थियों का उल्लेख भी ग्रयों मे पाया जाता है। रोग की विभिन्न अवस्थामो मे चिकित्सा में उसका प्रयोग होता है। अतिसार की कई यवम्यामो मे पिच्छा वस्ति का प्रयोग पाया जाता है। अतिसार या प्रवाहिका मे जब वायु का विवन्ध हो और योडो-योटी मात्रा में रक्तमिश्रित शूल के साथ बहुत बार गौच इत्यादि हो उम अवस्था मे पिच्छा वस्ति का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार चिरकालिक अतिमार में भी अनुवामन वस्ति का प्रयोग बतलाया गया है। ___सुश्रुत ने पिच्छा वस्ति का प्रयोग अनेक अवस्थाओ मे किया है, उदाहरणार्य वस्ति के उपद्रव रूप में होने वाले परिकर्तिका नामक रोग मे जिममे नाभि, वस्ति, गुदा, रोगी को कटते हुए प्रतीत होते है। दुर्बलता, अगो का टूटना, पित्त का गुदा से त्राव तथा गुदा के दाह मे भी पिच्छा वस्ति दी जाती है। यह दूब और घी के योग से बनाई जाती है। मलागय मे या स्थलान्त्र में दाह और शल हो और कठिनाई से कफ मिथित रक्त का आम युक्त मल त्याग हो तो उस अवस्था में भी पिच्छा वस्ति का निर्देश है । अति उप्ण, अति तीक्ष्ण, अतिशय मात्रा हो, अतिशय स्वेद दिए हए पुरुप को अतियोग के लक्षण उत्पन्न होते है। इसमे भी पिच्छा वस्ति का प्रयोग सुखदायक होता है । उत्तर वस्ति ( Urethral or Vaginal douche) - पुरुपो के मूत्र मार्ग और स्त्रियो के गर्भाशय तथा योनिसम्बन्धी रोगो मे जो वस्ति (पिचकारी) दी जाती है उसे उत्तर वस्ति कहते है। __ यन्त्र:-चरक ने उत्तर वस्ति देने में प्रयुक्त होने वाले यन्त्र का नाम पुप्प नेत्र कहा है। इसका मग्र भाग चमेली के फूल के वृन्तनहश या गोपुच्छाकार और सिरे मे गोल-पतली होती है । पहले जो यन्त्र बनता था उसमे चमडे के पास और बीच में एक चकती बैठाई रहती थी और अन भाग नरम सुवर्ण, चांदी आदि धातु का रहता था । अग्र भाग कुंद, कनेर, चमेली आदि के फूल के डण्ठल के समान किन्तु दृढ होता था और सिरे पर जो नली का मुख-छिद्र होता
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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