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________________ १४६ भिपकर्म-सिद्धि अनस्थाप्य :-अजीर्ण, अति निय, स्नेहपीत, उलिस्ट दोष, न्याग्नि, यानालान्त, अति दुर्बल, मूक, तृष्णा थमात, अतिकृय, भुत्तभरत, पीनीवर (पानी पिये) वमित विरिक्त, जिनका नाम कर्म दिया गया हो, जुद्ध, भीन, मत्त, मूच्छित, प्रभक्तच्छदि, निष्ठीविका, म्वाग, काम, दिवा, बद्धोदर, उगेटर, माध्मान, अलसक, विमूचिका, अप्रजाता, अतिमागे, मधुभेद मोर कुष्ट रोग में आस्थापन नहीं कराना चाहिये। आस्थाप्य :-टोप बाम्थाप्य है । विगेपन नवीन या एकाङ्गपात, क्षि रोग, वायु-परीप-मूत्र-गुक्र यादि की रुकावट, बल, वर्ण, माम मोर गुम-क्षय, आध्मान, जगमुप्ति क्रिमिकोप्ट, उदावन, शुद्ध, अतिनार, पर्वभेद, अमिताप, जोह गुल्म, गृल, हृद्रोग, पार्व-पृष्ठ-कटिग्रह, वेपन, मालेप, गुल्ला, अति लापव, रज अय, विपमाग्नि, स्फिक् जनु-जघा-ऊर गुल्फ-पाणि-प्रपद-योनि-बाहु-अगुली, सनान्त-दन्त-नस-पर्व-अस्थि-प्रभृति अगो के गूल, गोप वा स्तम्भ, मान्न पूजन, परिकतिका, उन गन्ध प्रभृति पारणो से उत्पन्न वात व्याधियो मे जिनका महारोगाध्याय (चरक) में वर्णन हुआ है, स्थापन प्रधान रूम में करना चाहिये। अननुवास्य -जिन रोगियों में स्थापन निपिख है, उनमें अनुवानन भी नही करे । विशेषत अमुक्त (विना साए), नव ज्वर, पाण्डुरोग, कामना, प्रमेह, वर्ग, प्रतिन्याय, मरोचक, मदाग्नि, दुर्वल, प्लीह, ककोदर, रस्तम्भ, पोंभेद ( अतिमार ) विपपीत, पीतगर, पित्त और कफामिप्यंद, गुरु कोष्ट, ग्लीपद, गलगण्ड, अपची, कृमिकोष्ठ । अनुवास्य :-जो स्थाप्य है वही मनुवास्य । विशेषत रूम और तीक्ष्ण अग्नि वाले केवल वात रोग से पीटित, उनमें अनुवासन प्रधान कर्म है। विभिन्न प्रकार की अन्य वस्तियाँ मात्रा वस्ति:-अनुवामन बस्ति का ही एक भेद विरोष है। हब माना के अनुवासन ही का नाम मात्रा वस्ति है। उसमें स्नेह की मात्रा | पल (६ तोले ) होती है, उसे मात्रा वस्ति कहते हैं। इसका प्रयोग कर्म व्यायाम-भारअव्वयान-स्त्री आदि के अति सेवन ने कृग व्यक्तिो में तथा दुर्बल और वात पोडित रोगियो में सदैव करना चाहिए । रोगी के लिये किमी प्रकार के पथ्य से रहें की यावश्यकता नहीं रहती। वह इच्छानुरूप भोजन, चेष्टा आदि कर सकता है और सव समय में इस वस्ति का प्रयोग भी किया जा सकता है। यह वस्ति बत्य, मुखवर्षक, मल आदि का गोवक, वहण, वातरोग नागक यादि गुणो से युक्त होती है।
SR No.010173
Book TitleBhisshaka Karma Siddhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnath Dwivedi
PublisherRamnath Dwivedi
Publication Year
Total Pages779
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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